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श्री अजितनाथ-चरित्र
बनाता, घेतकी जातिके पेड़ोंको नदीका पूर झुकाता है वैसे कइयोंको, अपने सामने सर झुकवा कर छोड़ता, कइयोंकी उँगलियोंको कटवाता, कइयोंके पाससे रत्नोंका देड ग्रहण करता, कइयोंसे हाथी घोड़े छुड़ाता, और कइयोंको छत्रहीन बनाता हुआ क्रमसे दक्षिण समुद्रके किनारे आपहुँचा । वहाँ हाथीसे उतरकर क्षणभरमें तैयार हुई छावनीके अंदर एक जगहमें उसने इस तरह निवास किया जिस तरह इंद्र विमानमें निवास करता है।
(८३-८६) वहाँसे चक्री पौषधशालामें गया और अष्टमतप कर पौपध ले वरदाम नामके वहाँके अधिष्ठायक देवका ध्यान करने लगा। अष्टम भक्तके अंतमें पोषध व्रत पार कर, सूर्यमंडलमेंसे लाया गया हो ऐसे रथमें बैठा । जैसे मथानी छास विलोनेकी मथनी में प्रवेश करती है वैसेही उसने रथकी नाभि तक समुद्रके जलमें प्रवेश किया। फिर उसने धनुषपर चिल्ला चढ़ाकर उसकी
आवाज की। बाससे घबराए हुए और कान मुकाए हुए जलचरोंने भयभीत होकर वह आवाज सुनी। सपेरा जैसे विलमेंसे सर्पको पकड़ता है वैसेही उसने एक अतिशय भयंकर वारण भाथेमेंसे निकाला । उसे चिल्लेपर चढ़ाकर किसी सूचना देनेके लिए आए हुए सेवककी तरह अपने कानके पास तक खींचकर इंद्र जैसे पर्वतपर वज्ञ डालता है वैसे, वरदामपतिके स्थानकी तरफ चला दिया। अपनी सभामें बैठे हुए वरदाम कुमार देवके आगे जाकर वाण ऐसे पड़ा जैसे किसीने मुद्गरका आघात किया हो। (१०-६७) - "इस भसमयमें कालने किसका खाता देखा है ?" कहते