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श्री अजितनाथ-चरित्र
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था। वह असंख्य द्वीप-समुद्रोंको लाँधकर, मानो सौधर्मकल्प हो ऐसा, देवताओं के लिए क्रीडा करनेके स्थान रूप नंदीश्वर द्वीप पहुँचा। वहाँ उसने, अग्निकोनमें रहे हुए रतिकर नामके पर्वतपर जाकर, विमानको छोटा बनाया। फिर वह वहाँसे विदा होकर विमानको अनुक्रमसे छोटा करते हुए जंबूद्वीपमें, भरतखंडकी विनीता नगरीमें आया और वहाँ उसने विमान सहित, स्वामीकी परिक्रमा देते हैं ऐसे, सूतिकाग्रहकी तीन बार परिक्रमा दी। कारण
......"स्वामिवत्स्वामिभूभ्यपि ।" [ स्वामीके समान स्वामीकी (जहाँ स्वामी निवास करते हैं वह भूमि भी वंदनीय होती है। फिर, सामंत जैसे राजाके महलमें प्रवेश करते समय अपनी सवारी एक तरफ खड़ी करता है वैसेही, उसने अपना विमान ईशान कोनमें खड़ा किया और कुलीन नौकरकी तरह अपने शरीरको संकुचित करके भक्ति सहित सूतिकागृहमें प्रवेश किया। (३२०-३३१)
अपनी आँखोंको धन्य माननेवाले इंद्रने तीर्थंकर और उनकी माताको, देखतेही प्रणाम किया। फिर दोनों की तीन प्रदक्षिणा दे, नमस्कार सहित वंदना कर हाथ जोड़, वह इस तरह बोला, "अपने उदरमें रत्न धारण करनेवाली, विश्वको पवित्र करनेवाली और जगत-दीपक ( जगत के लिए दीपकके समान पुत्र ) को देनेवाली हे जगन्माता ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे माता! आपही धन्य है कि, जिन्होंने, कल्पवृत्तको उत्पन्न करनेवाली पृथ्वीकी तरह, दूसरे तीर्थंकरको जन्म दिया है। हे माता! मैं सौधर्म देवलोकका स्वामी है और प्रभुका