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६३८] निषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ३.
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और मानवोंके लिए नित्य न्तुति करने लायक है । ऐसे आगम यचोंकी श्रानाका पार्लवन करके स्यावाद न्यायके योगसे इन्यपर्यायरूपसे. नित्यानित्य वस्तुओंम इसी तरह स्वरूप और. पररूपसे सत असतपनसे रहे हुए पदायों में नो स्थिर विश्वास करना है उसे पानाविचय ध्यान कहते हैं । (४४१ ४४६)
(२) अपाय विचय-"जिन्होंने जिनमार्गका स्पर्श नहीं किया, जिन्होंने परमात्माको नहीं जाना और जिन्होंने अपने
आगामी काल-यानी भविष्य का विचार नहीं किया ऐसे पुरुपौ. को हजारों अपाय ( बिन्न ) आते हैं। माया और मोहरूपी अंधकारसे जिसका चित्त परवश है (यानी जो अंधकारके कारण देख नहीं सकता है। वह प्राणी कौन कौनसे पाप नहीं करता है और उनसे उसको कौन कौनसे कष्ट नहीं होते हैं ! ऐसे प्राणीको विचार करना चाहिए कि, नारकी, तिथंच श्रीर. मनुष्य भवाम मन जो जो दुःख भोगे है उन सवका कारण मेरा दुष्ट प्रमादही है । परम बोधिवीजको पाकर भी मन, वचन और काया द्वारा की गई चेष्टायांस मैनही अपने मस्तकपर श्राग जलाई है। मुक्तिमार्गपर चलना मेरे हाथम था; मगर में कुमागे. को हूँढ उसपर चला और इस तरह मैंनही अपने प्रात्माको कष्ट में डाला। जैसे अच्या रान मिलनपर भी मुखं मनुष्य भीख माँगता फिरता है सही, मोक्षसाम्राज्य मेरे अधिकारमें होते हुए भी मैं अपने प्रात्माको संसारमें भ्रमण कराता हूँ। इस तरह.राग द्वेप और मोहसे उत्पन्न होनेवाले उपायोंका विचार करना अपायविचय नामक दूसरा धर्मध्यान कहलाता है।
(४५०-४५६)