________________
श्री अजितनाथ-परित्र
[६३६
-
.
(३) विपाकविचय-"कर्मके फलको विपाक कहते हैं। वह विपाक शुभ और अशुभ ऐसे दो तरहका है । दुव्य, क्षेत्रादि. की सामग्री द्वारा विचित्र प्रकारसे उसका अनुभव होता है । स्त्री, फूलों की माला और खाद्य द्रव्योंके उपभोगको शुभ विपाक कहते हैं और सर्प, शन, आग और जहर वगैरा पदार्थोंका जो अनुभव होता है उसे अशुभ विपाक कहते हैं । (ये शुभाशुभ विपाक द्रव्यविपाकके नामसे पहचाने जाते हैं ।)
"महल, विमान, बाग बगीचे इत्यादि स्थानों में निवास करना शुभविपाक है; और मसान, जंगल वगैरामें रहना अशुभविपाक है । ( ये शुभाशुभ विपाक क्षेत्र विपाक हैं।) ... "सरदी-गरमी रहित वसंतादिक ऋतुओंमें फिरना शुभविपाक है; और सरदी और गरमीकी हेमंत और ग्रीष्म ऋतु
ओंमें भ्रमण करना अशुभविपाक है। (इनको कालविपाक कहते हैं।) ___"मनकी प्रसन्नता और संतोषकी भावना शुभ विपाक है और क्रोध, अहंकार और रौद्रताकी भावना अशुभ विपाक है। (इनको भावविपाक कहते हैं ।)
कहा गया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भवको प्राप्त कर काँका उदय, क्षय, उपशम और क्षयोपशम होता है। इस तरह द्रव्यादि सामग्रीके योगसे प्राणियों को उनके कर्म अपना अपना फल देते हैं। कर्मके मुख्य आठ भेद हैं।
..(१) ज्ञानावरणीय-कपड़ेकी पट्टी बाँधनेसे जैसे आँख नहीं देख सकती वैसेही, जिस कमके उदयसे सर्वज्ञ स्वरूपवाले. :
-