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श्री अजितनाथ-चरित्र
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सभी पात्रोंके (यानी सब तरहके आदमियोंके)आप आधार हैं। मैं वेदादि शाओंको जाननेवालोंका सहाध्यायी हूँ; धनुर्वेदादि जाननेवालोंका मानो मैं आचार्य हूँ, उनसे अधिक जानता हूँ; सभी कारीगरोंमें मानो मैं प्रत्यक्ष विश्वकर्मा हूँ; गायन इत्यादि कलाओं में मानो पुरुषके रूपमें मैं साक्षात सरस्वती हूँ; रत्नादिकके व्यवहार में मानो मैं जौहरियोंका पितातुल्य हूँ; वाचालतासे मैं चारण-भाटोंके उपाध्याय जैसा हूँ; और नदी वगैरा तैरनेकी कला तो मेरे बाएँ हाथका खेल है। मगर इस समय तो इंद्रजालका प्रयोग करनेके लिए मैं आपके पास आया हूँ। मैं तत्कालही आपको उद्यानोंकी एक पंक्ति वता सकता हूँ और उसमें वसंतादि ऋतुओंका परिवर्तन करनेमें भी मैं समर्थ हूँ।
आकाशमें गंधर्व नगरका संगीत प्रकट कर सकता हूँ। क्षणभरमें मैं अदृश्य,दृश्य तथा अंतर्धान हो सकता हूँ। मैं कटहलकी तरह खैरके अंगारे खा सकता हूँ तपे हुए लोहे के तोमरको सुपारीकी तरह चबा सकता हूँ; मैं जलचरका, स्थलचरका या खेचरका रूप एक तरहसे या अनेक तरहसे परकी इच्छाके अनुसार धारण कर सकता हूँ; मैं दूरसे भी इच्छित पदार्थ ला सकता हूँ पदार्थों के रंगोंको तत्काल ही बदल सकता हूँ; और दूसरे अनेक अचरज पैदा करनेराले काम बतानेका कौशल मुझमें है। इसलिए हे राजन् ! आप मेरे इस कलाभ्यासको, देखकर उसे सफल बनाइए।" (२४६-२५७)
इस तरह उसके, गर्जना करके स्थिर हुए मेघकी तरह, प्रतिज्ञा करके, चुप होनेपर राजाने कहा, "हे कलाविन्द पुरुष ! जैसे कोई चूहा पकड़नेको पहाड़ खोदता है, मछलिया वगैरा