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१०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-धरित्रः पर्ष १. सर्ग १.
' यह सुनकर उसे अचरज हुया । खुशीसे उसकी आँखें चमकने लगी और शरीरमें रोमांच हो आया। वह विचार करने लगा, "कहाँ उन्माद, श्रानंद और योयनके कारण कामदेवकी मस्तीसे भरी इनकी यह जवानी ! और कहाँ वयोवृद्धोंके समान इनकी विवेकशीलमति ! जिन कार्मोको मुझ जैसे. बुढ़ापेसे जर्जर बने हुए आदमियोंको करना चाहिए उनको ये कर रहे हैं और अदम्य उत्साहके साथ भारको उठा रहे हैं।"
(७५१-७५३) इस तरह विचारकर बूढ़े व्यापारियोंने कहा, "हे भले जवानो! ये गोशीपचंदन और कंबल तुम ले जाओ। कीमत देनेकी जरूरत नहीं है । मैं इन चीजों की कीमत, धर्मरूपी अक्षयनिधि लगा। तुमने मुझे सगे भाईकी तरह धर्म-काममें हिस्सेदार बनाया है।" फिर उस भले सेठने दोनों चीजें दी 1 कुछ काल पाद शुद्ध मनवाला सेठ दीक्षा लेकर मोक्ष गया। (७५४-७५६)
दवाइयों लेकर महात्माओंमें अग्रणी वे मित्र वैद्यजीवानंदको साथ लेकर मुनिके पास गए। वे मुनि महाराज एक बढ़के नीचे फायोत्सर्ग कर ध्यानमें खड़े थे। वे ऐसे मालूम होते थे मानों यड़के पैर हो । उनको वदनाकर वे बोले, "हे भगवन ! आज हम चिकित्सा-कार्यसे आपके तपमें विघ्न डालेंगे। श्राप आज्ञा दीजिए और पुण्यसे हमको अनुगृहीत (अहसानमंद) कीजिए ।" (७५७-७५६) .. मुनिने इलाज करनेकी संमति दी। इसलिए वे तत्कालका मरा गोमृतक (गायका मुरदा) लाए। कारण अच्छे वैध कभी भी विपरीत (पापवाला ) इलाज नहीं करते । फिर उन्होंने मुनिके