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श्राठवाँ भव-धनसेठ
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हरेक अंगमें लक्षपाक तेलकी मालिशकी। तेल मुनिकी हरेक नसमें इस तरह फैल गया जैसे नहरका पानी खेतमें फैल जाता है। उस बहुत गरम गुणवाले तेलसे मुनि बेहोश हो गए। "योग्यमुग्रस्य हि व्याधेः शांत्यामत्युग्रमौषधम् ।"
( बड़ी बीमारीमें बहुत उग्र ( तेज ) दवाही योग्य होती है-असर करती है। तेलसे घबराए हुए कीड़े मुनिके शरीरसे इस तरह बाहर निकले जिस तरह पानी डालनेसे पल्मीक (चींटियोंके दर ) से चीटियाँ निकलती है। तब जीवानंदने मुनिके शरीरको रत्नकवलसे इस तरह ढक दिया जिस तरह चाँद अपनी चाँदनीसे आकाशको ढक देता है। रत्नकवलमें शीतलता थी, इसलिए शरीरसे बाहर निकले हुए कीड़े उस कवलगे ऐसे घुस गए जैसे गरमीके दिनोंमें दुपहरके वक्त गरमीसे घबराई हुई मदलियों सेवालमें घुस जाती है। फिर उन्होंने रत्नफंवलको, हिलाए बगैर धीरेसे उठाकर, उसमेंके सारे फीले गायके मुरदेपर डाल दिए । कहा है
"........"अहो सर्वत्राद्रोहता सताम् ।"
[सतपुरुपोंकी सब जगह अद्रोहता होती है यानी उनका हरेक काम,दयापूर्ण होताई ] उसके बाद जीवानंदने अमृतरसफे समान प्राणीको जिलानेवाले गोशोपचंदनका लेप मुनि शरीरपर किया। इससे उसमें शांति हुई। इस तरह पहले पमशीक अंदर के कीड़े निकले। फिर उन्होंने तेल मला. इससे मानवायुसे असे रस निकलवा मे मांस अदरसे पाहतसे की दादर निगले । पदने की तरह रत्नपल टका. इससे दो तीन दिन,