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चौथा भव-धनसेठ
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- "आपस में लड़कर हार जानेसे और अपने स्वामीके स्वामित्वमें बंधे रहने के कारण देवता भी सदा दुःखी रहते हैं । स्वभाव. सेही दारुण और अपार समुद्र में जैसे जल-जंतु अपार है वैसेही इस संसाररूपी समुद्र में दुःवरूपी अपार जल-जंतु है। भूतप्रेतोंके स्थानमें जैसे मंत्राक्षर रक्षक होते हैं वैसेही इस संसारमें जिनेश्वरका बताया हुया धर्म संसाररूपी दुःखोंसे बचाता है। बहुत अधिक वोझेसे जैसे जहाज समुद्र में डूब जाता है वैसेही हिंसारूपी बोझसे प्राणी नरकरूपी समुद्र में डूब जाता है, इससे कभी हिंसा नहीं करनी चाहिए । भूठको सदा छोड़ना चाहिए। कारण, भूठसे प्राणी इसी तरह संसारमें सदा भटकता रहता है. जैसे बवंडरसे तिनका इधर-उधर उड़ता रहता है। कभी चोरी नहीं करनी चाहिए-बगैर मालिककी आज्ञाके कभी कोई चीज नहीं लेनी चाहिए। कारण, चोरीकी चीज लेनेसे आदमी इसी तरह दुःखी होता है जिस तरह कपिकच्छ ( कौंच ) की फलीसे छूकर आदमी खुजाते खुजाते परेशान हो जाता है । अब्राह्मचर्य (संभोग. सुख, को सदा छोड़ना चाहिए। कारण, यह मनुष्यको इसी तरह नरकमें लेजाता है जिस तरह सिपाही बदमाशको पकड़कर हवालातमें लेजाता है। परिग्रह जमा नहीं करना चाहिए। कारग, बहुत बोभेसे बैल जैसे कीचड़ में फंस जाता है वैसेही श्रादमी परिग्रहके भारसे दुःखमें डूब जाता है। जो लोग हिंसा आदि पांच बातें देशसे (थोड़ेसे ) भी छोइते है वे उत्तरोत्तर कल्याण-संपत्ति के पात्र होते हैं। (५७६-५६१)
"फेवली भगवानके मुखसे उपदेश सुनकर निनामिकाको वैराग्य उत्पन्न हुआ। लोहे के गोलेकी तरह उसकी कमग्रंथी