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७२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुय-चरित्रः पर्व १ सर्ग १.
मिद गई । उसने मुनिमहाराजसे अच्छी तरह सम्यक्त ग्रहण किया; सर्वतका बनाया हथा गृहस्थधर्म अंगीकार किया और . परलोकलपी मार्गके लिए पाथेयकं समान अहिंसादि पाँच अणुव्रत धारण किए। फिर मुनिमहाराजको प्रणामकर अपनेको कृतकृत्य लमम, घासका बोमा उठाकर अपने घर गई। उस दिनसे बढ़ बुद्धिमती वाला अपने नामकी तरह योगघर मुनिके उपदेशको नहीं भुलाती हुई अनेक तरहके तप करने लगी । बह जबान हुई तो भी किसीने उससे शादी नहीं की। जैसे कड़त्री लोकीको पक्रनेपर कोई नहीं खाता वैसेही उसको भी किसीने ग्रहण नहीं किया । इस समय विशेष वैराग्यकी भावनासे निनामिका योगंधरमुनिसे अनशनत्रन ग्रहण कर रही है। हे ललिनांगदेव ! तुम उसके पास जाओ और उसे दर्शन हो, जिससे तुममें श्रासक्त वह मरकर तुम्हारी पत्नी बने। कहा है
....'या मतिः सा गतिः किल ।" [अंतमें जैसी बुद्धि होती है वैसीही गति होनी है]
(५२-५६६) ललिनांगदेवने वैसाही किया । और उसके ऊपर. (मनमें) प्रेम करती हुई वह सती मरकर स्वयंप्रमा नामा उसकी पत्नी हुई । प्रणय-कोपसे भागकर गई हुई न्त्री वापस आई हो उस तरह, अपनी प्रियाको पाकर ललितांगदेव अधिक क्रीड़ा करने लगा। कारगा, बहुत धूप, तपट्टए यादमीको छाया अत्यंत प्रिय-मुखदेनवाली होती है। (६००-६०१)
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