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________________ - ___ १४६ ] त्रिषष्टि शलाका घुमघ-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. "त्वत्पादी प्राप्य संसार, तरिष्यति न केऽधुना । अयोऽपि यानपात्रस्थं पारं प्राप्नोति वारिधेः ।" [अब श्रापकं चरणको प्राप्त करके कौन संसारसे पार न होगा ? कारणा, नावके योगसे लोहा भी समुद्रको तैर जाता है। हे भगवन! आपने इस भरतक्षेत्र में लोगोंके पुण्यसे ऐसे अवतार लिया है जैसे बिना वृक्षके प्रदेशमें कल्पवृक्ष उत्पन्न होता है और मदेशमें नदीका प्रवाह होता है । (३३०-३३७) प्रथम देवलोकके इंद्रन इसतरह भगवानकी स्तुति करके, अपने सेनापति नंगमेपी नामके देवसे कहा, "जबूद्वीपके दक्षिणाई. भरतक्षेत्र बीचके भूमिभाग नाभि फुलकरकी लक्ष्मीकी निधिक समान पत्नी मम्देवीके गर्भस प्रथम तीर्थंकरका जन्म हुआ है, इसलिए उनके जन्मस्नात्र के लिए सभी देवताओंको चुलायो।" (३२८-३४०) इंद्रकी पाना मुनकर उसने एक योजनके विस्तारवाला और अद्भुत ध्वनिवाला सुघोपा नामका-घंटा तीन बार बजाया । इससे दूसरे विमानोंके घंटे भी इसी तरह बनने लगे, जैसे मुख्य गानेवाले के पीछे दूसरं गवैये भी गाने लगते हैं। उन सभी घंटों का शब्द, निशाओंके मुख में हुई प्रतिध्वनिसे इस तरह बढ़ा जिस तरह झुलवान पुत्रोंसे कुलकी वृद्धि होती है। बत्तीस लाख विमानाम उछलता हुया वह शब्द तालुकी तरह अनुरणन (प्रतिध्वनि) रूप होकर बढ़ा। देवता प्रमादमें पड़े थे इसलिए यह शब्द सुनकर मूच्छित हो गए और मूर्छा जानेपर सोचने लगे कि क्या होगा ? सावधान देवाको संबोधन कर सेनापतिने मेघकी
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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