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चौथा भव-धनसेठ
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कड़े, कमरपर कंदोरा, हाथमें कंकण, भुजाओमें भुजबंध, छातीपर हार, गले में अवेयक (गलेमें पहिननेका जेवर), कानमें कुंडल, मस्तकपर पुष्पमाला और मुकुट वगैरा आभूषण, दिव्य वख
और सभी अंगोंका भूषणरूप यौवन उसको उत्पन्न होनेके साथही प्राप्त हुए । उस समय प्रतिध्वनिसे दिशाओंको गुंजा देनेवाले दुंदुभि वजे और मंगलपाठक (भाट) कहने लगे, "जगतको आनंदित करो और जय पाओ।" गीत-वादित्रकी ध्वनिसे और चंदीजनोंके (चारणोंके) कोलाहलसे मुखरित वह विमान ऐसा जान पड़ता था मानों वह अपने स्वामीके आनेकी खुशीमें पानंदसे गर्जना कर रहा है। फिर ललितांगदेव इस तरहसे उठ बैठा, जैसे सोया मनुष्य उठ बैठता है, और ऊपर कही हुई बातें देखकर सोचने लगा, "क्या यह इंद्रजाल है ? सपना है ? माया है ? या क्या है ? ये सव गीत-नाच मेरे लिए ही क्यों हो रहे हैं ? ये विनीत लोग मुझे स्वामी माननेके लिए क्यों तड़प रहे हैं ? और इस लक्ष्मीके मंदिररूप, आनंदके घररूप, रहनेलायक प्रिय और रमणीय भवनमें मैं कहाँसे आया ।" (४६०-४७२)
इस तरहसे उसके मनमें कई सवाल उठ रहे थे उसी समय प्रतिहार उसके पास आया और हाथ जोड़कर कोमल वाणीमें बोला, "हे नाथ ! हम आज आपके समान स्वामी पाकर सनाथ हुए हैं धन्य हुए है। आप नम्र सेवकोंपर अमीदृष्टिसे कृपा कीजिए। हे स्वामी ! यह ईशान नामका देवलोक है। यह सभी इच्छित (वस्तुयें) देनेवाला, अविनाशी लक्ष्मीवाला और सभी सुखांकी खान है। इस देवलोकमें आप जिस विमान