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________________ গী ঋলিলনাগ-বিম্ব [६६७ हजार आठ रत्नके कुंभ, मणिरत्नोंसे विचित्र दो भद्रासन, बाजूबंद, कड़े वगैरा रत्नोंके आभूषण और देवदूष्य वस्त्र चक्रवर्तीको भेट किए। फिर वह बोली, "हे नरदेव ! तुम्हारे देशमें रहनेवाली मैं तुम्हारी दासीकी तरह आचरण करूँगी। मुझे आज्ञा दीजिए।" अमृतके चूटकी जैसी वाणीसे देवीकासत्कार करके चक्रीने उसे विदा किया और फिर पारणा कर पहलेहीकी तरह (अर्थात जैसे पहलेबाले देवताओंका किया था वैसे) सिंधुदेवीका अष्टाह्निका उत्सव किया । कारण___ "महात्मनां महीनामुत्सवा हि पदे पदे ॥" [महान ऋद्धिवाले महात्माओंके लिए पद पदपर उत्सव होते हैं।] (१२७-१३५) अपनी बंधनशालासे जैसे हाथी निकलता है वैसेही, लक्ष्मीके धामरूप, आयुधशालासे निकलकर चक्र वहाँसे उत्तर पूर्वके मध्यमें चला । उसके पीछे चलते हुए कई दिनोंके बाद चक्रवर्ती वैताव्य महागिरिकी दक्षिण दिशा में पहुँचा और विद्याधरके नगरके जैसी छावनी डालकर, उसने वैतान्यकुमारका मनमें स्मरण कर अष्टमतप किया। अष्टमतप पूरा हुआ तब वैतादयाद्रिकुमार देवका श्रासन काँपा। अबधिज्ञानसे उसने जाना कि भरतार्द्धकी सीमापर चक्रवर्ती पाया है। उसने सगरके पास श्रा, आकाशमें रह, दिव्यरत्न, वीरासन, भद्रासन और देवदूष्य वस्त्र भेट किए। फिर प्रसन्न होकर उसने स्वस्तिवाचककी तरह आशीर्वाद दिया, "चिर जीरो! बहुत सुख पाओ! और चिरकाल तक विजयी बनो।" चकवीने अपने
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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