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श्री अजितनाथ चरित्र
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विरति - वैराग्यको रोकने वाला चारित्र मोहनीय कर्म कहलाता है । (র(2) आयुकर्म - मनुष्य, तिर्यंच, नारकी और देवता के भेदसे चार तरहका है । वह प्राणियोंको अपने अपने भवमें जेल - खाने की तरह कैद रखता है ।
" (६) नामकर्म - गति, जाति वगैराकी विचित्रता करनेवाला नामकर्म चित्रकारके समान है । इसका विपाक प्राणियोंको शरीर में प्राप्त होता है ।
" (७) गोत्रकर्म - उच्च और नीच भेदसे दो तरहका है । इससे प्राणियों को उच्च और नीच गोत्रकी प्राप्ति होती है । यह क्षीरपात्र और मदिरा पात्रका भेद करनेवाले कुंभकार के जैसा है । (5) अंतरायकर्म --- जिससे लाचार होकर दानादि लब्धियाँ सफल नहीं होतीं, वह अंतरायकर्म है। इसका स्वभाव भंडारी के समान है ।
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"इस तरह मूल प्रकृतियों के उस तरह के विपाक - परिणामका विचार करना 'विपाक विचय' नामका धर्मध्यान कहलाता । ( ४५७ - ४७६ )
" ( ४ ) संस्थान विचय — जिसमें उत्पत्ति, स्थिति और लयरूप आदि - अंतरहित लोककी प्रकृतिका विचार किया जाता है उसे संस्थानविचय धर्मध्यान कहते हैं । यह लोक कमरपर हाथ रख, पैरोंको चौड़े कर खड़े हुए पुरुषकी आकृति के जैसा है; और वह उत्पत्ति, स्थिति और नाशमान पर्यायोंवाले द्रव्योंसे भरा हुआ है। यह नीचे वेत्रासन जैसी, मध्यमें झालर जैसी और ४१ :