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'प्रथम भव-धनसेठ
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होते हैं। जो राग-द्वेषसे मुक्त होते हैं, जो नगर, गाँव, स्थान, उपकरण और शरीरमें भी ममता नहीं रखनेवाले होते हैं, जो अठारह हजार शीलांग को धारण करनेवाले होते हैं, जो रत्नत्रय (सम्यक-ज्ञान, सम्यकदर्शन और सम्यक् चारित्र ) के धारण करनेवाले. होते हैं. जो धीर और लोहा व सोनेमें समान दृष्टिवाले होते हैं, धर्मध्यान और शुक्लध्यानमें जिनकी स्थिति होती है, जो जितेंद्रिय, कुक्षिसंवल ( आवश्यकतानुसार भोजन करनेवाले), सदा शक्तिके अनुसार छोटे छोटे तप करनेवाले, सत्रह तरहके संयमको अखंडरूपसे पालनेवाले और अठारह तरहका ब्रह्मचर्य पालनेवाले होते हैं। ऐसे शुद्धदान लेनेवालोंको दान देना ग्राहक शुद्धदान' या 'पात्रदान' कहलाता है । ( १७८-१८२) - देय शुद्धदान-देने लायक,४२ दोषरहित अशन (भोजन, मिठाई, पुरी वगैरा ) पान (दूध-रस वगैरा), खादिम (फल मेवा वगैरा), स्वादिम (लौंग, इलायची वगैरा), वस्त्र और संथारा (सोने लायक पाट वगैरा) का दान, वह देय शुद्ध दान कहलाता है। (१८३)
योग्य समय पर पात्रको दान देना 'पात्रशुद्धदान' है और कामना रहित (कोई इच्छा न रखकर ) दान देना 'भावशुद्धदान' है (१८४)
शरीरके विना धर्मकी आराधना नहीं होती और अन्नादि विना शरीर नहीं टिकता। इसलिए धर्मोपग्रह ( जिससे धर्म साधनमें सहायता मिले ऐसा) दान देना चाहिए । जो मनुष्य अशनपानादि धर्मोपग्रहदान सुपात्रको देता है वह तीर्थको