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३०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र पर्व ? सर्ग १. अविच्छेद ( स्थिर ) करता है और परमपद (मोन ; को पाता . है! ( १८५-१८६)
"शीलं सावधयोगानां प्रत्याख्यानं निगद्यते।"
[जिस प्रवृत्तिसे (कामसे) प्राणियोंको हानि दो ऐसी प्रवृत्ति नहीं करना शील है।] उसके दो भेद हैं१. देशविरति, २. सर्वविरति । (१८७)
देशविरतिके बारह मेढ़ है; पाँच अणुव्रत, नीन गुणवत और चार शिक्षात्रत। (१८८)
स्थूल अहिंसा, स्थूल सत्य, स्थूल अस्तेय (अचौर्य), स्थूल ब्रह्मचर्य, और स्यूल अपरिग्रह ये पाँच अणुव्रत जिनेश्वर ने कहे हैं। (१६)
दिविति, भोगोपमोगविरति, और अनर्थदंडविरति ये तीन गुणव्रत है। (१६०)
सामायिक, देशात्रकाशिक, पायव और अतिथिसंविभाग वे चार शिक्षात्रत है । (१६१)
इस तरहका देशविरति गुण-शुश्रुषा (धर्म सुननेकी और सेवा करनेकी भावना) आदि गुणवाले, यतिधर्म (साधुधर्म) के अनुरागी, धर्मपथ्य भोजन (एला भोजन जिससे धर्मका पालन हो) को चादनवाल, शम (निर्विकारत्न शाँति ) संबैग (वैराग्य ), निद (नित्यूह), अनुकंपा (दया) और बालित्य (सहा) इन पाँच लक्षणांवान्त, सम्यक्त्वी, मिथ्यात्वसे निवृत्त (छूट हुए) और सानुबंध (अखंड) क्रोधक उदयसे रहिन-गृहमंधी (गृहन्धी ) महात्माश्राम, चारित्र