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· भरत चक्रवर्तीका घृत्तांत
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हुआ अष्टम तपका पारणा किया। फिर हिमालयकुमारकी तरह, ऋषभकूट पतिके लिए चक्रीकी सम्पत्तिके योग्य अष्टाहिका उत्सव किया। (४७७-४८१)
गंगा और सिंधु नदियोंके बीचकी भूमिमें,मानों समाते न हो इससे,आकाशमें उछलनेवाले घोड़ोंसे,सेनाके वोमसे घबराई जमीनको छिड़कनेकी इच्छा रखते हों ऐसे मदजलके प्रवाहवाले गंधहस्तियोंसे, कठोर पहियोंकी धाराओं द्वारा लीकोंसे पृथ्वीको अलंकृत करते हों ऐसे उत्तम रथोंसे और नराद्वैत (नरके सिवा और कुछ नहीं है ऐसी स्थिति)को बतानेवाले अद्वितीय पराक्रमवाले, भूमिपर फैले हुए करोड़ों प्यादोंसे घिरे हुए चक्रवर्ती, अश्ववार (महावत ) की इच्छानुसार चलनेवाले कुलीन मतंगजकी तरह, चक्रके पीछे चलकर वैताठ्यपर्वतपर आए और उस पर्वतके उत्तरभागमें जहाँ शवरों (भीलों) की स्त्रियाँ आदीश्वरके अनिंदित गीत गाती थी,महाराजाने छावनी डाली । वहाँ रहकर उन्होंने नमि-विनमि नामके विद्याधरोंके पास दंडको माँगनेवाला वाण भेजा। बाणको देखकर वे दोनों विद्याधरपति, गुस्से हुए और आपसमें विचार करने लगे। एक बोला,-(४७७-४८६)
"जवूद्वीपके भरत खंडमें यह भरत राजा प्रथम चक्रवर्ती हुआ है। यह ऋपभकूट पर्वतपर चंद्रवियकी तरह अपना नाम लिखकर, लौटते समय यहाँ आया है। हाथीके आरोहककी तरह उसने वैताठ्यपर्वतके पार्श्वभागमें (पासमें ) छावनी टाली है। वह सब जगह जीता है, उसे अपने भुजबलका अभिमान हो गया है, वह हमें भी जीतना चाहता है और इसी लिए, मैं मानता हूँ कि उसने यह उदंड दंडरूप वाण हमारे पास फेका है।"