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३२४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४.
फिर सोच-विचार कर दोनों युद्ध के लिए तैयार हो, अपनी सेनासे पर्वतके शिखरको ढकने लगे। सौधर्म और ईशानपतिकी देव-सेनाकी तरह, दोनोंकी आज्ञासे विद्याधरोंकी सेना आने लगी। उनकी किल-किल आवाजसे मालूम होता था मानों वैताट्यपर्वत हँस रहा है, गर्ज रहा है, फट रहा है। विद्याधरेंद्रोंके सेवक वैताव्यपर्वतकी गुफाकी तरह सोनेका बहुत बड़ा ढोल बजाने लगे। उत्तर और दक्षिण तरफके शहरों, कसबों और गाँवोंके मालिक, रत्नाकरके पुत्र हों ऐसे, तरह तरहके रत्नोंके आभूषण पहनकर, मानों गरुड़ हों ऐसे, अस्खलित गतिसे आकाशमें फिरने लगे। नमि-विनामके साथ चलते हुए वे उनके प्रतिबिंबसे मालूम होते थे। कई विचित्र माणिक्योंकी प्रभासे दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले विमानोंमें बैठकर, वैमानिक देवताओंसे भिन्न न दिखाई दें ऐसे चलने लगे कई, पुष्करावर्तके मेघकी तरह, मदबिंदुओंकी वर्षा करनेवाले और गर्जना करनेवाले, गंधहस्तियोंपर सवार होकर चले; कई सूरज और चाँदके तेजसे भरे हुए हों ऐसे, सोने और रत्नसे बनाए हुए रथमें बैठकर चले; कई आकाशमें अच्छी चालसे चलते और अति वेगसे शोभते, मानों वायुकुमार देवता हों ऐसे घोड़ोंपर सवार हो, जाने लगे और कई हाथोंमें हथियार लिए, वनके कवच पहने, बंदरोंकी तरह कूदते फाँदते पैदलही चले। इस तरह विद्याधरोंकी सेनासे घिरे हुए और लड़ाईके लिए तैयार नमिविनमि वैताव्यपर्वतसे उतर भरतपतिके सामने आए।
(४६०-५०५) ... आकाशसे उतरती हुई विद्याधरोंकी सेना ऐसी मालूम