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३२२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र; पर्व १. सर्ग ४.
एसेही शत्रुके बाणको देखकर हिमाचलकुमार देवकी आँखें लाल हो गई। मगर जब उसने बाणको उठाकर देखा और उसपर लिखे हुए अक्षरोंको पढ़ा तब उसका गुस्सा इसी तरह शांत हो गया जिस तरह सपको देखकर दीपक शांत हो जाता है। इससे प्रधानपुन्यकी तरह वह वाणको भी साथमें रख मेंटें ले भरतेश्वरके पास आया। श्राकाशमें ठहर, जयजय शब्दोंका उच्चारण कर उसने, पढ़ने वाण बनानेवालेकी तरह वारण भरतको दिया और फिर देववृनके फूलोंसे गुंथी माला गोशीपचंदन, सर्वोपधि और न्हका जल, ये सब चीजें चक्रवर्तीको भेट की, कारण उसके पास वेद्दी चीजें मारप थीं। कई, बाजूबद और दिव्य बन्न भेटके बहाने उसने महाराजको दंडमें दिये और कहा, हे स्वामी! मैं उत्तरदिशाके अंतमें आपके नौकर की तरह रहूँगा।" यों कहकर जब वह चुप हुआ तब,चक्रवर्तीन उसको,मत्कार करके विदा किया। फिर उन्होंने, मानों हिमालयका शिखर हो ऐसे और मानों शत्रुओंका मनोरथ हो ऐसे अपने रथको लौटाया।
(४४६-४७६) ___ वहाँस ऋषमपुत्र ऋषभकूट गए और, जैसे हाथी अपने दाँतोंसे पर्वतपर प्रहार करता है वैसे, उन्होंने अपने रथके अगले मागसे तीन बार ऋषमऋपर आघात किया। फिर सूर्य से किरणकोशको ग्रहण करता है सही चक्रवर्तीन, रथको वहीं ठहरा, काँकिणीरत्न ग्रहण किया और काँकिणीरत्नसे पर्वतके पूर्व शिवरपर लिखा, "श्रवसर्पिणीकालके तीसरं श्रारं के अंतिम मागमें में भरत नानक चक्रवर्ती हुआ हूँ।" ये अक्षर लिख चक्रवर्ती अपनी छावनी में आए, और उन्होंने उसके लिए किया