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प्रथम भव सव द्वीपोंके वीचमें नामिके समान बूद्वीपके मध्यभागमें, जहाँ दुःपमसुपमा नामक चतुर्थ श्रारा निरंतर रहता है, महाविदेद नामका क्षेत्र है। उस क्षेत्रमें सीता नामकी महानदीके दक्षिण किनारे पर बहुत समृद्धिवान वत्स नामका देश है। स्वर्गप्रदेशका एक भाग पृथ्वीमें स्थित हो ऐसी अद्भुत सुंदरनाको धारण करता हुआ वह देश सुशोभित होता है। उसमें गाँवपर गाँव और शहरपर शहर बसे हुए होनेकी वजहसे शुन्यतासिर्फ आकाशमेंही थी ।गाँवों और शहरों में संपत्ति समान होनेसे उनमें भेद मात्र राजाके आश्रयसेही मालूम होता था । वहाँ, जगह जगह, मानो क्षीर समुद्र से निकलकर आती हुई धाराओंसे भर गई हो ऐमी, स्वच्छ और मीठे जलकी वापिकाएँ थी; महात्माओंके अंत:करणांके जैसे स्वच्छ, विशाल और जिनके मध्य-भागोंकी गहनता जानी न जा सके ऐसे तालाब थे,
और पृथ्वी रूपी देवीके पत्रवल्लीके। विलासको विस्तृत बनानेघाले,हरी लताओचाले बगीचे स्थित थे। गाँव गोयग मुसाफिरों की तृपाको मिटानेवाले गन्ने के खेत, रमापी जलके घड़ों जैसे, गनोंसे शोभित थे। प्रत्येक गोयुलमें मानों शरीरधारिणी दृघकी नदियों हो ऐसी, दूधका झरना बहानेवाली गाएँ पृथ्वीको भिगोती थीं और प्रत्येक मार्गपर जैसे जुगलिए लोगोंसे कुर
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१-मुखपर रेल-यूटे शादि, फेसर वदन वगंगले बनाना ।