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५१२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २ सगै १.
देशक कल्पवृक्ष शोभित होन है उसी प्रकार, नीचे बैठे हुए मुसा. फिरोसे फलवाले वृत मुशोभित हो रहे थे। (३-१३)
उस देशमें पृथ्वीक तिलकरूप और दौलतके भंडाररूप, यथा नाम तथा गुण वाली, मुसीमा नामकी नगरी थी। अमाधारा समृद्धिसे मानो पृथ्वी मध्यभागमें कोई अमुरदेवोंका नगर प्रगट हुया होगमा यह नगररत्न मुशोभित था। उस नगरीके घमं यद्यपि त्रिपा अकली फिरती थीं तथापि रत्नमय दीवारोंमें उनके प्रतिबिंब पड़त थे इससे एमा जान पड़ता था कि वे अपनी सखियोंके साथ हैं। उनके चारों तरफ समुद्रके समान वाईवाला और विचित्र रत्नमय शिलाओंसे युक्त, जगतीक कोट समान किला शोमता था। मदनल बरसाते हए. हाथियोंके फिरनेसे शहरकं रम्तोंकी धूलि, वर्षाऋतुके जलके गिरनसे जैसे शांत हो जाती है वैसही, शांत रहती थी । कुलथान त्रियांक घटीम सुरजकी किरणं इसी तरह प्रवेश नहीं कर पाती थी जैसे वे कमलिनीक कोशमं नहीं जा :कती है। वहाँ चैत्योंक ऊपर. फर्गती हुई पताकाएँ मानों हाथोंके इशारोंसे सूर्यको कह रही थी कि तू प्रभुकं मंदिरपर होकर मत ना । श्राकाशको श्याम करनेवाले और पृथ्वीको जलस पूरनेवाने । उद्यान, नमीनपर श्राप हुए बादलांक समान जान पड़त थे। आकाश तक ऊँच शिखरबान्त स्वर्ण और रत्नमय हजारों क्रीडापर्वत मेरू पर्वतकं कुमारकं समान शोभत थे। वह नगर ऐसा शोमता था मानो धर्मअर्थ और कामन क्रीड़ा करने के लिए एक ऊँचे प्रकारका संकेतस्थान बनाया हो। ऊपर और नीचेश्राकाश और पातालमं स्थित अमरावती और.भोगारतीके मन्य