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सागरचंद्रका वृत्तांत
वैसेही मरुदेवीके उदरमें वह गर्भ गुप्तरीतिसे धीरे धीरे बढ़ने लगा। ठंडा पानी, हिममृतिका (बरफ) डालनेसे जैसे अधिक ठंडा होता है वैसेही गर्भके प्रभावसे स्वामिनी मरुदेवी अधिक विश्व-वत्सला हुई। गर्भ में आए हुए भगवानके प्रभावसे, नाभिराजा युग्मधर्मी लोगोंमें, अपने पितासे भी अधिक माननीय हुए। शरदऋतुके.योगसे चाँदकी किरणें जैसे अधिक तेजवाली होती हैं वैसेही सभी कल्पवृक्ष अधिक प्रभाववाले हुए। जगतमें पशुओं और मनुष्योंके आपसी वैर शांत हो गए; कारण वर्षाकालके आनेसे सभी जगह संताप (दुःख) शांत हो जाते हैं।
(२५१-२६३) भगवान ऋषभदेवका जन्म इस तरह नौ महिने और साढ़े आठ दिन बीते; फिर चैत्र महिनेकी वदी पक्षकी अष्टमी के दिन, आधी रातके समय सभी ग्रह उच्चस्थानमें आए थे और चंद्रका योग उत्तराषाढा नक्षत्रमें पाया था उस समय मरुदेवीने सुखपूर्वक युगलधर्मी संतानको (जुडवाँ बच्चोंको) जन्म दिया। तब इस आनंदकी (बातसे) दिशाएँ प्रसन्न हुई और स्वर्गमें रहनेवाले देवोंकी तरह लोग बड़े श्रानंदसे क्रीड़ाएँ करने लगे। उपपादशय्या (देवताओंके उत्पन्न होनेकी शय्या) में उत्पन्न हुए देवताओंकी तरह जरायु और रुधिर आदि कलकसे रहित-भगवान बहुत अधिक
शोभने लगे। उस समय दुनियाकी आँखों में अचरज पैदा करने. बाला और अँधेरेको मिटानेवाला, बिजलीके प्रकाशजैसा, प्रकाश
. १-न-मिल्ली जिसमें लिपटा हुआ बच्चा गर्भसे बाहर आता है।