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भरत-बाहुवलीफा पुशांत [ ३५६ बाहुबली । वह महा बलवान है और बलयान पुरुषों के बलको नाश करनेवाला है । जैसे, सभी शत्र एक तरफ और चक्र एक तरफ, उसी तरह सभी राजा एक तरफ और बाहुबली एक तरफ । जैसे श्राप अपभदेवजीके लोकोत्तर पुत्र है वैसेही, वे भी है। जबतक आप उनको नहीं जीतेंगे तब श्रापने फिसीको नहीं जीता,ऐसाही माना जाएगा । यद्यपि इस छःखंड भरतक्षेत्रमें आपके समान कोई नहीं दिखता, तथापि उनको जोतनेसे आप. फा अत्यंत उत्कर्ष होगा। बाहुवली जगतके मानने योग्य आपकी याज्ञाको नहीं मानते, इसलिए उनको नहीं जीतनेसे चक्र, मानों लजित हुआ हो ऐसे, नगरमें प्रवेश नहीं करता है।
'उपेक्षितव्यो न पर: स्वल्पोप्यामयवद्यतः ।"
[ थोड़ेसे रोगकी तरह छोटेसे शत्रुकी उपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। ] इसलिए देर किए बगैर उनको जीतनेका शीघ्र ही प्रयत्न करना चाहिए।" (१-१३)
मंत्रीकी ये बातें सुनकर, दावानल और मेघकी वृष्टिसे पर्वतकी तरह, तत्कालही कोप और शांतिसे आशिष्ट होकर (अर्थात पहले क्रुद्ध और फिर शांत बनकर ) भरतेश्वरने कहा, "एक तरफ छोटा भाई श्राज्ञा नहीं मानता, यह शरमकी बात है
और दूसरी तरफ छोटे भाई के साथ लड़ाई करना भी दुःखदायी है। जिसकी आज्ञा अपने घरमें नहीं चलती उसकी आज्ञा बाहर भी उपाहासास्पद (दिल्लगीके लायक ) होती है। इसी तरह छोटे भाईके अविनयको सहना भी अपवादरूप है । घमंड करनेवाले को सजा देना राजधर्म है, और भाइयों के साथ अच्छी तरह रहना चाहिए यह भी व्यवहार है; इस तरह अफसोस है कि