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________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [२८९ राजा मुझे स्थानभ्रष्ट करेगा अथवा मेरा निग्रह करेगा-मुझे दंड देगा। भरत चक्रवर्तीने, बाहर, वीचमें, अगली व पिछली नोकपर नागकुमार ,असुरकुमार और सुवर्णकुमारादि देवताओंसे अधिष्ठित (रक्षित), दूतकी तरह आज्ञाकारी और दंडके अक्षरोंसे भयकर, वारणको मगधतीर्थ के अधिपतिपर चलाया। पंखोंकी बहुत बड़ी फड़फड़ाहटसे श्राकाशको शब्दायमान करता हुआ (गुंजाता हुभा) वह बाण गरुड़के समान वेगसे चला । राजाके धनुपसे निकला हुआ वह बाण ऐसे शोभने लगा जैसे मेघसे निकलती हुई बिजली, आकाशसे गिरते हुए. तारेकी आग, आगसे उड़ती हुई चिनगारियाँ, तपस्वीसे निकलती तेजोलेश्या, सूर्यकांतमणिसे प्रकट होती हुई आग और इंद्रके हाथ से छूटता हुआ शोभता है। क्षणभरमें बारह योजन समुद्रको लॉपकर वह बाण मगधपतिकी सभामें जाकर ऐसे पड़ा जैसे छातीमें वाण लगता है। मगधपति उस असमयमें सभागे बाणके आकर गिरनेसे इस तरह गुस्से हुए जिस तरह लकड़ी लगनेसे साँप गुस्से होता है। उसकी दोनों भ्रकुटियाँ भयंकर धनुपकी तरह चढ़कर गोल हो गई; उसकी आंखें दहकती पागके समान लाल हो.. उठी; उसकी नाक धोंकनीके समान फूलने लगी और उसके ओंठ साँपके छोटे भाई हों ऐसे फूत्कार करने लगे। आकाशमें धूमकेतु. की तरह ललाटपर रेखाओंको चढ़ा, सपेरा जैसे सर्पको उठाता है वैसे अपने दाहिने हाथमें शस्त्र उठा, अपना बायाँ हाथ शत्रके कपालकी तरह आसनपर पछाड़, विपज्वालाके समान पाणीमें वह बोला,-(१०४-११५) - "अपनेको वीर समझनेवाला और न माँगने लायक वस्तु.
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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