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दसवाँ भव-धनसेठ
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कालतक कदर्थित किया। विपयोंमें लोलुप होकर मैंने (नेपथ्यकर्मसे) जुदा जुदा रूप धारण कराके इस यात्माको नटकी तरह चिरकालतक नचाया है। यह मेरा साम्राज्य अर्थ और कामका कारण है। इसमें धर्मका जो चिंतन किया जाता है वह भी पापानुबंधकही होता है। मैं आपके समान पिताका पुत्र होकर भी यदि संसार-समुद्रमें भटका कम् तो फिर मुझमें और दूसरे सामान्य मनुष्योंमें क्या अंतर है ? इसलिए जैसे मैंने आपके दिए हुए राज्यका पालन किया है वैसेही अत्र, मुझे संयमरूपी साम्राज्य दीजिए । उसका भी मैं पालन करूंगा। (८२७-८३२)
अपने वंशरूपी आकाशमें सूरजके समान चक्रवर्ती वनजघने निज पुत्रको राज्य सांप भगवानके पाससे दीक्षा ग्रहण की। पिताने और बड़े भाईने जिस व्रतको ग्रहण किया उस प्रतको वाह आदि भाइयोंने भी ग्रहण किया। फारण उनकी फुलरीति यही थी। सुयशा सारथीने भी धर्मके सारथी ऐसे भगवानसे अपने स्वामीके साथही दीक्षा ली। कारण, सेवक स्वामीका अनुकरण करनेवालेही होते हैं। (८३३-२३५)
वमनाम गुनि घोडेही समय में शालसमुद्र पारगामी हए । इससे ये एक अंगको प्रान हुई प्रत्यन जंगम ( मननी फिरती )द्वादशांगीके समान मालूम होने । यार, वगैरा मुनिगण ग्यारा अंगोंके पारगामी हुए। टीकाही मादा है कि
"अयोपशमचिच्याचित्रा हि गुणसंपदः ।"
[षयोपशमले विपिनमा पाई गुगसपशिना भी विचित्र की ही होतीमानीमा अगोपनामा