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... . टिप्पणियाँ
[१६ ...... १७. संयम-पाँच इन्द्रियोंका निग्रह, पाँच अवतोंका त्याग, चार कषायोंका जय, और मन-वचन-कायकी विरति ।
१०. वैयावृत्त्य- आचार्य, उपाध्याय, तपस्त्री, शैक्ष (शिक्षण-प्राप्तिका उम्मीदवार-नवदीक्षित), ग्लान (रोगी). गण (एक साथ पढ़नेवाले भिन्न भिन्न आचार्यों के शिष्योंका समूह), कुल (एक ही दीक्षाचार्यका शिष्य-परिवार) संघ, साधु, समनोज्ञ (समानशील)। [इन दस तरहके सेव्योंकी सेवा करना।]
... ब्रह्मचर्य-गुप्ति-१-उस स्थानमें न रहना जहाँ स्त्री, पशु या नपुसक हो। २-स्त्रीके साथ रागभावसे बातचीत न करना। ३-जिस आसनपर स्त्री वैठी हो उस पर पुरुप और · पुरुष बैठा हो उसपर स्त्री दो घड़ी तक न बैठें। ४-रागभावसे .. पुरुष स्त्रीके और स्त्री पुरुपके अंगोपांग न देखें। ५-जहाँ स्त्री
पुरुष सोते हों या कामभोगकी बातें करते हों और उसके बीच में .. एक ही दीवार हो तो साधु वहाँ न ठहरे। ६-पहले भोगे हुए
भोगोंको याद न करे । ७-पुष्टिकारक भोजन न करे। -नीरस . आहार भी अधिक न ले। -शरीरको न सिंगारे।[ इनसे ' शीलकी रक्षा होती है।] '.... ३. तीनरत्न-ज्ञान, दर्शन और चारित्र ।।
.१२. तप-६ बाह्य तप-अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति
रस त्याग, विविक्तशया-संलीनता यानी ऐसे एकान्त . स्थानमें रहना जहाँ कोई बाधा न हो, कायक्लेश । ६-अभ्यंतर तप-प्रायश्चित्त, विनय,वैयावृत्त्य,स्वाध्याय, व्युत्सर्ग-अभिमान और ममताका त्याग करना, और ध्यान ।]
१. कपायजय-कोच, गान, माया, लोग। (सुल ७०)