________________
७१८) त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग४.
--
पूरी तैयारी हो गई तब चक्री अंन:पुर तथा बीरत्न सहित, रत्नाचलकी गुफाक सनान उस रत्नमंडपमें दाखिल हुया । वहाँ उन्होंने सिंहासन सहित मणिमय स्नानपीठकी, अग्निहोत्री जैसे अग्निकी प्रदक्षिणा करता है वैस, प्रदक्षिणा की और अंत:पुर महिन पूर्व तरफकी सोपानपंक्तिसं उस पीठपर चढ़ जिसका मुँह पूर्वकी तरफ है गेले, सिंहासनको अलंकृत किया । बत्तीस हजार राजा मी, हंस नैस क्रमलखंडपर चढ़त है बैंस, उत्तर तरफकी सीदियोक पन्ने पर चढ़, सामानिक देव जैसे इंद्रके सामने बैठन है वैसे, नगर राजाके सामने हाथ जोड़ दृष्टि रख, अपने अपने वासनापरवठा सनापति,गृहपति,पुरोहित और बर्द्धक्रीरत्न इसी तरह संठ,सार्थवाह और अन्य अनेक मनुष्य, श्राकाशमें जैसे तारे होते हैं बस, दक्षिण तरफ सोपानास ऊपर चढ़ लानपाठयर अपने अपने आसनोंपर बैठे। फिर शुभ दिन, बार, नक्षत्र, करगा, योग, चंद्र श्रीर समीग्रहो बलवाले लग्नमें देयों इत्यादिन सोन, चाँदीक, रत्नोंक और जिन मुखोंपर कमल रह हुए है ऐसे कलशांस, मगर राजाको चक्रवर्तीपदका अभिघेक किया; चित्रकार जैसे रँगनकी दीवारको साफ करते हैं वैसे, उन्होंने देवदूष्य बन्नसे कोमलताकें साथ राजाके शरीरको पोंछा; फिर मलयाचल के सुगंधित चंदनादिकसे, चंद्रिकाके द्वारा श्राकाशकी तरह, उन्होंने राजाके अंगपर विलपन किया, दिव्य और अति मुबिवाल पूलांकी माला, अपने दृढ़ अनुरागकी तरह, रानाको पहनाई, और चुद लापट्टए देवदूष्यवऔर रत्नालंकार चक्राको पहनाए। तब महाराजाने मेघध्वनिके समान वागीम अपने नगरके अध्यक्षको पावादी, नगरमें हिंढोरा पिटवा