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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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किया था। (8) आगे चलते हुए चक्रसे जैसे चक्रवर्ती शोभता है वैसेही आकाशमें उनके आगे चलते हुए धर्मचक्रसे वे शोभते थे। (१०) सब कर्मोंको जीतनेसे ऊँचे जयस्तंभके जैसा छोटीछोटी हजारों ध्वजाओंवाला एक धर्मध्वज उनके आगे चलता था। (११) मानो उनका प्रयाणोचित कल्याण मंगल करता हो ऐसा अपने आपही महान शब्द करता हुआ दिव्य दुदुभि उनके
आगे बजता था; (१२) वे मानों अपना यश हो ऐसे, आकाशमें स्थित, पादपीठ सहित स्फटिक रत्नके सिंहासनसे शोभते थे (१३) देवताओंके बिछाए हुए सोनेके कमलोपर राजहंसकी तरह वे लीलासे चरण-न्यास करते थे ( कदम रखते थे); (१४) उनके भयसे मानों रसातलमें घुस जाना चाहते हों ऐसे, नीचे मुखवाले तीक्ष्ण दंडरूप काँटोंसे उनका परिवार (साधु-साध्वियाँ) आश्लिष्ट नहीं होता था। (यानी साधु-साध्वियोंको काँटे नहीं चुभते थे।); (१५) छहों ऋतुएँ एकही समयमें उनकी उपासना करती थीं, मानों उन्होंने कामदेवको सहायता देनेका जो पाप किया था उसका वे प्रायश्चित्त करती हैं; (१६) मार्गके चारों तरफसे नीचे झुकते हुए वृक्ष, यद्यपि वे संज्ञारहित हैं तथापि, ऐसे जान पड़ते थे मानों वे प्रभुको नमस्कार करते हैं; (१७) पंखेके पवनकी तरह मृदु, शीतल और अनुकूल पवन उनकी सेवा निरंतर करता था; (१८) स्वामीके प्रतिकूल चलने वालोंका कल्याण नहीं होता है, यह सोचकर पक्षी नीचे उतर उनकी प्रदक्षिणा दे दाहिनी तरफसे जाते थे; (१९) चपलतरंगोंसे जैसे सागर शोभता है वैसे, आने जानेवाले जघन्यसे (कमसे कम) करोड़ जितनी संख्यावाले सुरों और असुरोंसे वे शोभते थे;