________________
४४०] त्रिषष्टि शलाका घुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६
विश्वोपकारी भगवान ऋषभदेवज ग्राम, आकर,पुर, द्रोणमुख, खर्वट, पत्तन मंडप, याश्रम और खेट आदिसे भरी हुई भूमिपर विहार करते थे।
तीर्थकरोंके कुछ अतिशय विहारके समयमें (१) अपनी चारों दिशाओं में सवासी योजन तक लोगोंकी व्याधियोंको मिटाकर, वर्षाऋतुके मेधकी तरह जगतके जीवोंको शांति देते थे; (6) राजा जैसे अनीति मिटाकर प्रजाको सुग्व देता है ऐसेही पतंग (टिट्टी), चूहे और शुक वगैरा उपद्रव करनेवाले प्राणियोंकी प्रवृत्तिको रोककर सबकी रक्षा करते थे; (३) सूर्य जैसे अंधकारका नाश कर प्राणियोंको मुख पहुँचाता है ऐसेही वे प्राणियोंकि किसी कारणवश जन्मे हुए अथवा शाश्वत बैरको मिटाकर सबको प्रसन्न करते थे; (४) पहले जैसे सबको सुख पहुँचानेवाली व्यवहार प्रवृत्तिसे लोगोंको आनंदित किया था वैसेही अव विहारकी प्रवृत्तिसे सबको आनंदित करते थे; (५) दवासे जैसे अजीर्ण या अति क्षुधा मिटती है ऐसेही वे अतिवृष्टि और अनावृष्टिके उपद्रयों को मिटाते थे; (६) अंतःशल्य (हृदयकी शूल ) की तरह इनके पानेसे स्त्रचक्र और परचक्रका डर तत्कालही दूर होता था, इससे मुखी लोग बड़े उत्साहके साथ इनका स्वागतोत्सव करते थे; और (७) मांत्रिक पुरुष जैसे भूतों और राक्षसोंसे रक्षा करते हैं ऐसेही वे संहारकारक घोर दुर्भिक्षसे सबकी रक्षा करते थे। ऐसे उपकारोंसे सभी लोग इन महात्माकी स्तुति करते थे। (८) अंदर न समा सकनेसे बाहर आई हुई अनंत ज्योति हो ऐसा और सूर्यमंडलको जीतनेवाला भामंडल उन्होंने धारण