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________________ ७४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६. रहें, जहाँ कोई उपद्रव न हो। ( ५३३-५३६) तब सगर चक्रीने अपने पात्र भगीरथको बुलाकर वात्स. ल्ययुक्त वाणीमें कहा, "हे वत्स! अष्टापढ़के चारों तरफकी खाई को पुरकर गंगा नदी उन्मत्त स्त्रीकी तरह इस समय गाँवोंमें फिर रही है। उसे दंडरत्न द्वारा खींचकर पूर्व सागरमें डाल दो। कारण,-जबतक जलको मार्ग नहीं बताया जाता तबतक वह अंधकी तरह उन्मागपर भटकता है। असामान्य वाहुपराक्रम, भुवनोत्तर ऐश्वर्य, महान हस्तित्रल, विश्व विख्यात अश्ववल, महापराक्रमी प्यादोंका बल, बड़ा रथवल और अति उत्कट प्रताप, निस्सीम कौशल और देवी आयुध संपत्ति, ये सब जैसे शत्रुओंके गर्वका हरण करते हैं वैसही, लान पड़ता है कि इनका अभिमान हमें भी हानि पहुँचाता है । हे पुत्र ! अभिमान सभी दोषोंका अग्रणी है, आपत्तिका स्थान है, संपत्तिका नाशक है, अपकीर्तिका कती है, वंशका संहारक है, सर्व सुखोंका हर्ता है, परलोक पहुँचानेवाला है और अपने शरीरहीसे जन्मा हुआ, शत्र है। ऐसा अभिमान जब सन्मार्गपर चलनेवाले सामान्य लोगोंके लिए भी त्यान्य है, तब मेरे पौत्रके लिए तो वह खास तोरसे छोड़ने लायक ही है। ई पौत्र! तुमे विनीत होकर गुणकी पात्रता प्राप्त करनी चाहिए । विनयी वननसे अशक्त मनुष्यको भी उत्कृष्ट गुणकी प्रानि होती है और शचिवान पुरुषक लिए ती यदि विनय गुण हो तो वह सोने और सुगंधके मेलसा या निष्कलंक चंद्रमाके समान होता है। सुर, अमुर और नागादिकका तुम्हें यथायोग्य क्षेत्रमें और मुखकारक कार्यमै उपचार करना चाहिए। उपचारके योग्य कार्यमें उपचार करना दोष
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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