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१२.] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पत्र २. सग ३.
"स्वामिपादानुगमनवतानामुचितं यदः ॥"
जिन्होंने न्वामीकचराँका अनुगमन करनेचान लिया था उनके लिए यही-दीना नेना ही- उचिन था।]
इंद्रकुन स्तुति फिर जगनपतिको प्रदक्षिणा दे, प्रणाम कर, अच्युनादि इंद्र, इस तरह न्नुनि करने लगे। (२५-२६५) ____ह प्रभु ! आपने पूर्व पद अभ्यासक श्रादरसे (अर्थात श्रापको पूर्व अवसही चारित्र पालनेका अभ्यास है हम ) बैंगन्यत्री हम नग्ह ग्रहण किया है कि वह इस जन्ममें जन्म माय ही एकात्ममात्र हो गया है। मोन्न-पावनमें प्रवीण नाय ! श्रापका मुम्बकं (शरीगदि सुन्नक) इंतु इष्टसंयोगादिमें जैसा कम्बल बैंगन्य है बेसाही व हेतु इष्टवियोगादिमें है। ई प्रमु ! आपने विकल्पी मान पर चढ़ाकर बैंगन्यरूपी शम्मको ऐसा चमकाया है कि मोन प्रान करने में भी उसका पराक्रम लुटित गतिमें उपयोग में श्रा रहा है। नाय ! अब श्राप देखा और गजायोंकी लक्ष्मीका उपयोग करतं नव भी श्रापका यानंद नो गन्यमय ही था। काम नित्य विन्ति रन्ननवान श्रापको जब प्रांड वैराग्य उत्पन्न हुया तव श्रापन सोचा, "काममोग अब बंदा और श्रापन योग स्वीकार कर लिया-दीनाले ली। नत्र श्राप मुन्त्रमें, हमें,संसारमें श्रीर मोक्षमें उदायीनताका मात्र बम्बन है, तब श्रापको तो अविच्छिन्न वैराग्यही है। आपको किनमें वैराग्य नहीं है? दूसरे जीव तो दुःखगर्मित और मोहगर्मिन बैराग्यवाले होते हैं, परंतु आपके