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श्री अजितनाथ-चरित्र
मंत्रियोंने जवाब दिया,"पहले ऋषभदेव भगवान हुए हैं। वे भारतमें धर्मतीर्थके आदिकर्ता थे और तुम्हारे पूर्वज थे। उनका पुत्र भरत निन्यानवेभाइयोंमें सबसे बड़ा था। उसने छह खंड पृथ्वी जीती थी और सभीसे अपनी आज्ञा मनवाई थी। इंद्रके लिए जैसे मेरुपर्वत है वैसेही, चक्रीके लिए आश्चयाँका स्थानभूत यह अष्टापद नामका क्रीड़ागिरि था। इस अष्टापद पर्वतपर ऋषभदेव भगवान, दस हजार साधुओंके साथ, मोक्ष गए हैं। ऋषभ स्वामीके निर्वाणके बाद भरत राजाने यहाँपर रत्नमय पाषाणोंका सिंहनिषद्या नामका चैत्य बनवाया था। उसमें उसने ऋषभ स्वामी और उनके बाद होनेवाले तेईस तीर्थकरोंके निर्दोष रत्नोंके बिंब बनवाए हैं। हरेक विंब अपने अपने देहप्रमाण, संस्थान, वर्ण और चिह्नवाले हैं। उसने उनकी प्रतिष्ठा इस चैत्यमें, चारण मुनियोंसे कराई है। उसने अपने बाहुबली इत्यादि निन्यानवे भाइयोंकी चरणपादुकाएँ और मूर्तियाँ भी यहीं स्थापित कराई है। यहाँ भगवान ऋषभदेवका समवसरण हा था। उस समय उन्होंने भविष्यमें होनेवाले तीर्थंकरों, चक्रवर्तीयों, वासुदेवों, प्रतिवासुदेवों और बलभद्रोंका वर्णन किया था। इस पर्वतके चारोंतरफ भरतने आठ पाठ सोपान बनाए थे। इसलिए इसका नाम अष्टापदगिरि है।"
(६६-१०५) यह हाल सुनकर कुमारोंको हर्षहुआ । उस पर्वतको अपने पूर्वजोंका जान वे अपने परिवार सहित उसपर चढ़े और सिंहनिषद्या चैत्यमें गए। दूरसे, दर्शन होतेही, उन्होंने हर्प सहित आदितीर्थकरको प्रणाम किया। अजित स्वामीके और दूसरे