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१८४] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २.
ललाटकी स्पर्धा करते हो वैसे अर्द्धचंद्रकी शोभाको चुरावे थे । और उसके सुन्दर केश मुखरूपी कमलमें लीन हुए भरि हों ऐसे जान पड़ते थे। सभी अंगोंसे सुंदर और पुण्य लावण्यासुन्दरता) रूपी अमृतकी नदीसी वह वाला वनमें फिरती हुई वनदेवीके समान शोमती थी । उस अली मुग्धाको देखकर किंकर्तव्य मूढ़तासे (क्या करना चाहिए सो नहीं समझनेसे) जड़ बने हुए कई युगलिए उसे नामिरानाके पास ले गए। श्री नामिराजान 'यह अपमकी धर्मपत्नी हो' यह कह कर, नेत्ररूपी कुमुद के लिए चाँदनीके समान उस यालाको स्वीकार किया । (७३५-७५६)
इसके बाद एक दिन सौधर्मेंद्र अवधिनानस प्रभुके व्याहका समय जानकर अयोध्यामें पाया और जगत्पतिकं चरणोंमें प्रणाम कर उनके सामने एक प्यादेकी तरह खड़े हो, हाथ जोड़ विनती करने लगा,"हे नाथ नो अनानी ज्ञानकी निधिके समान स्वामीको, अपने विचार या बुद्धिसे किसी काममें प्रवृत्त होनेकी बात कहता है वह हँसीका पात्र बनता है तोभी स्वामी अपने नोकरोको स्नेहकी दृष्टिसेही देखता है, इसलिए वे कई बार स्वच्छंदतापूर्वक कुछ बोल सकते हैं। उनमें भी जो अपने स्वामीके अमिप्रायको सममकर बोलते हैं वे सच्चे सेवक कहलाते हैं। मगर हे नाथ ! मैं आपके अभिप्रायको जाने वगैर बोलता हूँ, इसलिए श्राप अप्रसन्न न हों। मैं जानता हूँ कि आप गर्भवांससेही बीतराग है और अन्य पुरुषार्थाकी इच्छा न होनेसे चौथे पुरुषार्थ (मोक्ष) के लिए ही तैयार हैं, फिर भी हे स्वामी ! मोक्षमार्गकी तरह व्यवहारमार्ग भी पापहीसे प्रकट होनेवाला है, इसलिए उस लोकव्यवहारको श्रारंभ करनेकेलिए में आपका विवाह