________________
श्री अजितनाथ चरित्र
[ ६५ ३
वलगु, सुवलगु, गंधिल और गंधिलावती ये आठ विजय उत्तरकी तरफ हैं । ( ५८६-६०४ )
"भरत खंडके मध्य में दक्षिणार्द्ध और उत्ततार्द्धको जुदा करनेवाला वैताढ्य पर्वत है । वह पवत पूर्व और पश्चिम में समुद्र तक फैला हुआ है । वह छह योजन और एक कोस पृथ्वीमें गहरा है । उसका विस्तार पचास योजन और ऊँचाई पच्चीस योजन है । पृथ्वीसे दस योजन ऊपर की तरफ जानेपर, ऊपर दक्षिण और उत्तर में दस दस योजन विस्तारवाली विद्याधरों की दो श्रेणियाँ हैं । उनमें से दक्षिण श्रेणी में विद्याधरोंके राष्ट्रसहित - पचास नगर हैं और उत्तर श्रेणी में साठ नगर हैं । उन विद्याधरोंकी श्रेणी के ऊपर दस योजन जानेपर उतनेही विस्तारवाली व्यंतरोंके निवास से सुशोभित दोनों तरफ दो श्रेणियां हैं। उन व्यंतरोंकी श्रेणियोंसे ऊपर, पाँच योजन जानेपर, नौ कूट" हैं । इसी तरह ऐरवत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत है । ( ६०५- ६१० )
I
"जबूद्वीप के चारों तरफ किले के समान आठ योजन ऊँची वज्त्रमयी जगती' है । वह जगती मूलमें बारह योजन चौड़ी है, मध्य भागमें आठ योजन है और ऊपर चार योजन है । उसपर जालकटक है । वह दो कोस ऊँचा है। वहाँ विद्याधरोंका अद्वितीय मनोहर क्रीड़ा स्थान है । उस जालकटकके ऊपर भी देवताओंकी भोगभूमि रूप 'पद्मवरा' नामकी एक सुंदर वेदिका है। उस जगतीकी पूर्वादि दिशाओं में अनुक्रम से विजय,
१ - शिखरः । २ -- जमीन ( प्रसंगसे इसका अर्थ दीवार जान - पड़ता है ।)