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२७८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३.
प्रभुके साथ चले। रत्नमय और स्वर्णमय वप्र (टेकरी) के मध्यमागमें, ईशानकोनमें स्थित, देवछंदपर प्रमुं विश्राम लेनेके लिए बैठे। उस समय भगवानके मुख्य गणधर ऋषभसेनने, भगवतकी पादपीठ (पैर रखनेकी जगह ) पर बैठकर, धर्मदेशना देनी शुरू की। कारण,स्वामीको थकानमें श्रानंद, शिष्योंका गुणदीपन(गुण प्रकाशन)और दोनों तरफ प्रतीति (विश्वास) ये गणधरकी देशनाके गुण हैं। जब गणधरका व्याख्यान समाप्त हुआ तब सभी प्रभुको वंदना कर अपने अपने स्थानपर गए ।
(६७-६८२) . इस तरह तीर्थकी स्थापना होनेपर गोमुग्न नामका एक यज्ञ, जो प्रमुके पास रहता था, अधिष्टायक हुआ। उसके चार .हाथ थे। उसकी दाहिनी तरफके दो हाथोंमेंसे एक हाथ वरदान चिह्नवाला (वरदान देनेकी मुद्रामें) था और दूसरेमें उत्तम अक्षमाला शोमती थी; वाई तरफके दो हाथोंमें घीजोरा और पांश (रस्सी) थे। उसका वर्ण सोनेके जैसा और वाहन हाथी या। उसी तरह ऋषभदेव प्रभुके तीर्थमें उनके पास रहनेवाली एक प्रतिचक्रा (चक्रेश्वरी ) नामक शासन-देवी हुई। उसकी कांति स्वर्णके समान थी और उसका वाहन गरुड़ था। उसकी दाहिनी भुजाओंमें वर देनेवाला चिह्न, बाण, चक्र और पाश थे और चाएँ हाथोंमें धनुप, वन, चक्र और अंकुश य ।
(६८३-६८६) र नक्षत्रोंसे घिरे हुए चंद्रमाकी तरह महर्पियोंसे घिरे हुए भगवानने दूसरी जगह विहार किया। मानों भक्तिवश होकर मार्गमें नाते प्रभुको वृक्ष नमस्कार करते थे, कॉट ओंधे.