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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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मुँह हो जाते थे और पक्षी प्रदक्षिणा देते थे। विहार करते हुए प्रभुकी इंद्रियोंके लिए ऋतुएँ और वायु अनुकूल हो जाते थे। कमसे कम एक करोड़ देवता उनके पास रहते थे। मानों भवांतरमें जन्मे हुए कर्माको नाश करते हुए देखकर भयभीत हुए हों ऐसे जगत्पतिके केश, श्मश्रु (डाढ़ी) और नाखून बढ़ते न थे। प्रभु जहाँ जाते थे वहाँ वैर, मारी, ईति, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष और स्वचक्र तथा परचकसे होनेवाला भय, ये उपद्रव होते न थे। इस तरह विश्वको विस्मयों (अचरजों) से युक्त होकर संसारमें भटकनेवाले जगतके जीवोंपर अनुग्रह (मेहरबानी) करनेका विचार रखनेवाले नाभेय (नाभिराजाके पुत्र) भगवान वायुकी तरह पृथ्वीपर अप्रतिवद्ध (वेरोक-टोक) विहार करने लगे। (६८७-६६२) ।
आचार्य श्री हेमचंद्रविरचित, त्रिषष्टिशलाका पुरुष . चरित नामक महाकाव्यके प्रथम पर्वमें,
. भगवद्दीक्षा,छमस्थ, विहार, केवलज्ञान . .. और समवसरण-वर्णन नामका
तीसरा सर्ग पूर्ण हुआ।