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चतुर्थ सर्ग
भरतका चौदह रत्न पाना और दिग्विजय करना
अब वहाँ अतिथिकी तरह चक्रके लिए उत्कंठित भरत राजा विनीता नगरीके मध्यमार्गसे होकर आयुधागारमें पहुंचे। चक्रको देखते ही राजाने उसको प्रणाम किया । कारण
"मन्यते क्षत्रिया ह्यस्वं प्रत्यक्षमधिदेवतम् ।"
[क्षत्रिय लोग शस्त्रको साक्षात देवता या परमेश्वर मानते हैं।] भरतन रोमहम्तक (पोछनेका एक वन) हाथमें लेकर चक्रको पोंछा। यद्यपि चक्ररत्नपर रज नहीं होती, तोमी भक्तोंकी यह रीति है। फिर उदय होते हुए सूर्यको जैसे पूर्वसमुद्र स्नान कराता है वैसही महाराजाने चक्ररत्नको पवित्र जलसे स्नान कराया। मुन्न्य गजपनिके पिछले भागकी तरह उसपर गोशीपं. चंदनका पूल्यतासूत्रक तिलक किया। फिर साक्षात जयलक्ष्मीकी तरह पुष्प, गंध, वासचूर्ण,वस्त्र और श्राभूषणोंसे उसकी पूजा की। उसके धागे चाँदीकं चावलांसे अष्टमंगल चित्रित किए और उन जुदा जुदा मंगलांसे श्राठा दिशाओंकी लक्ष्मीको घेर लिया। उसके पास पाँच वरण के फलोंका उपहार. रख पृथ्वीको विचित्र वणवाली बनाया। और शत्रुओंके यशकी तरह यत्नपूर्वक चंदन-कपुरमय उत्तम धूप जलाया। फिर चक्रधारी भरत रानाने चक्रको तीन प्रदनिणा दी और गुरु-भावनासे वह सात पाठ कदम पीछे हटा । जैसे हमको कोई न्नेही मनुष्य नमस्कार