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चौथा भव-धनसेठ
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"शाबाश, स्वयंबुद्ध मंत्री, शाबाश ! तुम अपने स्वामी बहुत अच्छे हितचिंतक हो। जैसे डकारसे भोजनका अनुभव होता है वैसे ही तुम्हारी बातोंसे ही तुम्हारे भावोंका अनुमान होता है। सदा आनन्दमें रहनेवाले स्वामीके सुखके लिए तुम्हारे जैसे मंत्रीही ऐसा कह सकते हैं, दूसरे नहीं कह सकते । तुम्हें किस कठोर स्वभाववाले उपाध्यायने पढ़ाया है कि, जिससे तुम स्वामीको ऐसे असमयमें वनपातके समान, कठोर वचन कह सके हो ! सेवक खुद जब अपने भोगहीके लिए : स्वामीकी सेवा करते हैं तब वे स्वामीसे ऐसा कैसे कह सकते हैं कि, तुम भोग न भोगो । जो इस भवमें मिलनेवाले भोगसुखोंको छोड़कर परलोकके लिए यत्न करते हैं वे अपनी हथेलीमें रहे हुए लेह्य (चाटने लायक) पदार्थको छोड़कर कुहनी चाटनेकी कोशिश करनेवाले जैसी (मूर्खता) करते हैं। धर्मसे परलोकमें फल मिलता है यह कहना असंगत है । कारण परलोकमें रहनेवालोंका अभाव है। और जब रहनेवालेही नहीं हैं तव लोक कहाँसे आया ? जैसे गुड़, आटा और जलसे मदशक्ति (शराब) पैदा होती है उसी तरह पृथ्वी, अप, तेज और वायुसे चेतनाशक्ति उत्पन्न होती है। शरीरसे भिन्न कोई दूसरा शरीरधारी प्राणी नहीं है कि, जो इस लोकको छोड़कर परलोकको जाए । इसलिए निःशंक होकर विषयसुखोंको भोगना चाहिए।
और अपने आत्माको ठगना नहीं चाहिए। स्वार्थका नाश करना मूर्खता है। धर्माधर्मकी शंकाएँ कभी नहीं करनी चाहिए। कारण ये सुखोंमें विघ्न करनेवाली हैं। और धर्म-अधर्मकीतो गधेके सींगकी तरह हस्तीही नहीं हैं। एक पाषाणको, स्नान,