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: प्रथम भव-धनसेठ
बैलों, ऊटों और घोड़ों (के पैरों) से उड़ी हुई धूलि आकाशमें इस तरह छा गई कि दिन भी सूईसे वींधा जा सके पेले अंधकारसे पूर्ण हो गया । (७२) । ... बैलोंके (गलोंमें बँधे हुए) घंटोंकी आवाजोंने 'मानों दिशाओंके मुखौंको बहिरा बना दिया था । चमरी मृग (सुरा गोएँ) अावाजोले डरकर, अपने बच्चों सहित, कान खड़े किए 'दुर खड़ी (आवाजोंकी तरफ) देख रही थीं। (७३) :. . बहुत वोझा उठाकर चलते हुए ऊँट अपनी गरदने टेढी
करके वृक्षोंके अगले भागको बार बार चाटते.थे। (७४) , जिनकी पीठों पर (मालसे भरे) थैले रखे थे वे गधे
अपने कान खड़े और गरदने सीधीकर एक दूसरेको काटते थे . और (चलते हुए) पीछे रह जाते थे । (७५.) . - हथियार बंदरनकोंसे घिरकर चलता हुआ सेट पेसामालूम
होता था मानों वह वज्रकेपिंजरेमें बैठा जा रहा है । (७६) - बहुतसा धन और सामान लेकर जाते हुए सार्थ (व्या'पारियोंके समूह ) से चोर और लुटेरे इसी तरह दूर रहते थे जैसे मणिधर सर्पसे लोग दूर रहते हैं । (७७)
सेट धनवान और गरीव सबके योग-क्षेमकी (कुशल. मंगलकी) समान भावले देखभाल करता था और वह सबके साथ इस तरह चलता था जैसे यूथपति हामी सव छोटे-बड़े हाथियोंको साथ लेकर चलता है। खुशीसे चमकती आँखोंके साथ लोग उसका आदर करते थे। यह सूर्यकी तरह, प्रति दिन, आगे बढ़ता था। (७८-७६) * योग-अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति कराना। क्षेम-प्राप्त वस्तुकी रक्षा करना।