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श्री अजितनाथ-चरित्र
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सारी चीजें भेट कर दी। कहा है,. "कृष्टाश्चेष्टय इवायोति शक्त्या शक्तिमतां श्रियः॥"
[बलवानोंको उनकीशक्तिके द्वाराही लक्ष्मी दासीकी तरह मिल जाती है। ] नदियाँ जैसे समुद्रसे मिलने आती हैं इसी तरह दूर दूरसे आकर राजा जिनकी सेवा करते हैं ऐसा चक्रवर्ती बहुत दिनों तक छावनी डालकर वहींरहा । (१७४-१७६)
एकबार उन्होंने तमिस्रा गुफाके दक्षिण द्वारके किवाड़ खोलनेकी दडरत्नरूपी कुंजीको धारण करनेवाले, सेनापतिको आज्ञा दी। उसने तमिस्रा गुफाके पास जा, उसके अधिष्ठायक कृतमालदेवका मनमें ध्यान कर अष्टमतप किया। कारण,
..........."प्रायस्तपोग्राह्या हि देवताः ॥"
। देवता प्रायः तपसे ग्राह्य (ग्रहण करने लायक, प्रसन्न करने लायक ) होते हैं। अष्टमतपके अंतमें वह स्नानविलेपन कर, शुद्ध वस्त्र पहन, धूपदानी हाथमें ले, देवताके सामने जाते हैं वैसे, गुफाके सामने गया। गुफाको देखतेही उसने प्रणाम किया और हाथमें दंडरत्न लेकर वह द्वारपर द्वारपालकी तरह खड़ा रहा। फिर वहाँ अष्टाह्निका उत्सव कर,अष्टमांगलिक चित्रित करसेनापतिने दंडरत्नसे गुफाके द्वारपर आघात किया। इससे कड़ड़ शब्द करते हुए सूखी हुई फलीके संपुटकी तरह, उसके किवाड़ खुल गए । कड़ड़ शब्दकी आवाजसे किवाड़ोंके खुलनेकी बात चक्रवर्तीने जान ली थी,तो भी पुनरुक्तिकी तरह सेनापतिने जाकर वह बात चक्रीसे निवेदन की। चक्रवर्ती हस्तिरत्नपर सवार हो, चतुरंगिणी सेना सहित, मानो वह एक दिग्पाल