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३१२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. ..
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लड़ाईकी उमंगमें उनके शरीरं ऐसे फूलने लगे कि उससे उनके कवचोंके तार टूटने लगे। उनके खड़े केशोंवाले सरॉपरसे शिर खाण सरक जाते थे; ऐसा जान पड़ता था, मानों मस्तक दुखसे कह रहे थे कि हमारी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। कई क्रोध में आए हुए किरात, यमराजकी भ्रकुटीके समान टेढ़े और सींग. के वनाए हुए धनुप आसानीसे चढ़ाकर, धारण करने लगे, कई मानों जयलक्ष्मीकी लीलाकी शैया हो ऐसी रणमें दुर्वार और भयंकर तलवारें म्यानोंसे खींचने लगे; कई यमराज के छोटे भाई. के जैसे दंडोंको ऊँचे उठाने लगे; कई धूमकेतुकी तरह भालोंको पाकशमें नचाने लगे; कई रणोत्सवोंमें आमंत्रित प्रत राजाओंको प्रसन्न करने के लिए, मानों शत्रुओंको शूलपर चढ़ाना हो ऐसे, त्रिशूल धारण करने लगे; कई शत्रु रूपी चिड़ियोंके प्राण लेनेवाले बाज पर्व की तरह लोहेके शल्य हाथों में लेने लगे और कई, मानों आकाशके तारोंको तोड़ना चाहते हों ऐसे, अपने उद्धत हाथ से तत्काल मुद्गर फिराने लगे। इस तरह लड़ाई करने की इच्छ.से सबने तरह तरह के हथियार बाँधे। एकभी आदमी विना हथियारका न था। युद्धरसकी इच्छावाले वे, मानों एक आत्मावाले हों ऐसे, सभी एक साथ भरतकी सेनापर । चढ़ पाए । ओले गिरानेवाले प्रलयकालके मेघकी तरह, शस्त्रोंकी वर्षा करते हुए म्लेच्छ, भरतकी सेनाक अगले भागके साथ जोरोंसे युद्ध करने लगे। मानों पृथ्वीमसे, दिशाओंके मुखसे
और आकाशसे पड़ते हों वैसे चारों तरफसे हथियार गिरने लगे। दुर्जनकी उक्तिसे जैसे सभीमें भेद हो जाता है ऐसेही भरतकी सेनामें कोई ऐसा न रहा जो भीलोंके याणसे मिदान .