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श्री अजितनाथ-चरित्र
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समुद्रकी तरंगें टकरा रही हैं। आकाशमें इंद्र रूपी वाहनपर सवार होकर जाते हुए प्रभुके आगे चलते हुए ग्रह, नक्षत्र और तारे पुष्प-समूहताको प्राप्त होने लगे । एक मुहूर्तमें इंद्र मेरु पर्वत के शिखरकी दक्षिण दिशामें रही हुई, अतिपांडुकवला नामकी शिलाके पास आया और वहाँ प्रभुको गोदमें लेकर, पूर्वकी तरफ मुख करके रत्नसिंहासन पर बैठा । ( ३३७-३५२) ___उसी समय ईशान देवलोकके इंद्रका आसन काँपा। उसने अवधिज्ञानसे श्रीमान सर्वज्ञका जन्म जाना । उसने भी पहले इद्रकी तरह सिंहासन छोड़, पाँच सात कदम प्रभुके सूतिकागृहकी तरफ चल, प्रभुको नमस्कार किया। उसकी आज्ञासे लघुपराक्रम नामके सेनापतिने ऊँचे स्वरवाले महाघोप नामका घंटा बजाया। उसकी आवाजसे, अट्ठाईस लाख विमान इसी तरह भर गए जैसे, हवासे उछलते हुए और बढ़ते हुए समुद्रकी आवाजसे किनारेके पर्वतकी गुफा भर जाती है । सवेरे बजने. वाले शखकी आवाजसे जैसे सोते हुए राजा जागते हैं वैसेही, उन विमानोंके देवता जाग गए। महायोपा घंटेकी आवाज जत्र शांत हुई तब सेनापतिने मेघके समान गंभीर आवाजमें यह घोपणा की,-"जंबूद्वीपमें भरत खंडके अंदर विनीतापुरी (अयोध्या ) में जितशत्रु राजाकी विजया नामकी रानीसे दूसरे तीर्थकर उत्पन्न हुए हैं। उनके जन्माभिषेकके लिए तुम्हारे स्वामी इंद्र मेरु पर्वतपर जाएँगे इसलिए हे देवताओ! आप लोग सभी स्वामीके साथ चलने के लिए तैयार हो।" यह घोषणा सुनकर सभी देव इस तरह ईशानपतिके पास पहुँच गए, जिस तरह मंत्रसे आकर्पित प्रारमी पहुँचते हैं। फिर हायमें त्रिशूल लेफर,