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भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत
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को यह आज्ञा दी, "हे वत्सो! पुरुप-व्रतधारी वीर पुरुपोंको तो अत्यंत द्रोह करनेवाले दुश्मनोंके साथही युद्ध करना चाहिए। राग, द्वेष, मोह और कपाम् जीवोंको, सैको जन्मोंमें भी नुकसान पहुँचानेवाले दुश्मन है। राग (स्नेह ) सद्गतिमें जानेसे रोकने के लिए लोहेकी ग्रेड़ी के समान बांधनेवाला है और द्वेष नरकवासमें निवास करानेकी बलवान जमानत है। मोह संसारसमुद्र के भंवरमें डाननेका पा (प्रतिक्षा) रूप है और कपाय आगकी तरह अपने आश्रित लोगोंको ही जलाती है, इसलिए पुरुपोंको चाहिए कि वे अविनाशी उन उन उपायरूपी अत्रोंसे निरंतर युद्ध करके बैरीको जीत और सत्य शरणभूत धर्मकी सेवा करें, जिससे शाश्वत श्रानंदमय पदकी प्राप्ति सुलभ हो। यह राज्यलक्ष्मी, अनेक योनियों में गिरानेवाली, अति पीड़ा पहुँचानेवाली, अभिमानरूप फल देनेवाली और नाशमान है। हे पुत्रो! पहले स्वर्गके सुखोंसे भी तुम्हारी तृष्णा पूरी नहीं हुई है, तो कोयले यनानेवालों की तरह मनुष्य संबंधी भोगोंसे तो वह फैसे पूर्ण हो सकती है ? कोयले बनानेवालेकी बात इस तरह है,-(२६-३४)
कोई कोयले बनानेयाला पुरुष पानीकी मशक लेकर निर्जल जंगलमें, कोयले बनाने के लिए गया। वहाँ दुपहरकी धूपसे और अंगारोंकी गरमीसे उसे प्यास लगी। इससे वह घबराया और साथमें लाई हुई मशकका सारा पानी पी गया, फिर भी उसकी प्यास नहीं बुझी । इससे वह सो गया । सपने में मानों वह घर गया। वहाँ मटका, गागर और कलसा वगैराका सारा पानी पोगया, सो भी जैसे तेलसे अग्निकी तृपा शांत नहीं होती वैसे