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सागरचंद्रका वृत्तांत
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से इंद्रधनुष के समान फूलमाला, अपने हाथोंसे गूथता था और अपनी प्रियाको पहनाकर प्रसन्न करता था; और कोई पुरुप . अपनी प्रिया द्वारा खेल-खेलमें फेंकी गई, फूलोंकी गेंदको उठाकर सेवककी तरह अपनी प्रियाको देता था। कई मृगलोचनाएँ झूलेपर झूलती हुई, सामने वाली डालीपर ऐसे पैर लगाती थीं जैसे अपने अपराधी पतिको कोई पादप्रहार करती हो-लात लगाती हो । कोई नवोढ़ा-नवविवाहित युवती, सखियोंके द्वारा पतिका नाम पूछा जानेपर लज्जासे मुद्रित मुखको झुका लेती थी और सखियोंके पादप्रहारको सहती थी । कोई पुरुष भूलेपर अपने सामने बैठी हुई डरपोक प्रियाको गाढ़ आलिंगन देनेके इरादेसे झूलेको जोरसे चलाता था और कई रसिक युवक बागके वृक्षोंकी डालोंमें वाँधे हुए झूलोंकी लंबी लंबी पंगे लगाते थे।
और वे झूलोंके वृक्षोंके पत्तोंमें जाने मानेसे बंदरके समान मालूम होते थे। (९८५-१०१६)
'. इस तरह नगरके लोगोंको लीला करते हुए देखकर प्रभुके मनमें विचार आया कि क्या दूसरी जगह भी इस तरह के खेल होते होंगे ? विचारते विचारते अवधिज्ञानसे पूर्वजन्मोंमें भोगे हुए अनुत्तर विमान तक सभी स्वर्ग-सुख याद आए। पुन: विचारते हुए उनके मोहबंधन टूट गए और वे सोचने लगे"इन विषयोंसे आक्रांत लोगोंको धिक्कार है ! ये आत्मसुखको जरासा भी नहीं जानते । अहो ! इस संसाररूपी कुरमें 'अरघट्ट घट्टि यंत्र' के न्यायसे (यानी जैसे रहँटकी माला कुएमें जाती है और वापस ऊपर आती है वैसे )जीव अपने कमासे गमना.
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