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श्री अजितनाथ-चरित्र
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वाले क्षेत्र और पर्वत है । उस धातकी खंडमें.चक्रके आरेके जैसे श्राकारवाले और निपधपर्वतके जितने ऊँचे तथा कालोदधि और लवण समुद्रको छूते हुए वर्षधर और इप्वाकार पर्वत है और पारेके अंतर जितने क्षेत्र हैं। (६४०-६४३)
"धातकी खंडके चारों तरफ कालोदधि समुद्र है। उसका विस्तार आठ लाख योजन है। उसके चारों तरफ पुष्करवर द्वीपार्ध उतनेही प्रमाणवाला है। धातकी खंडमें इण्याकार पर्वतों सहित मेरु वगैराकी संख्याओंसे संबंध रखनेवाला जो नियम बताया गया है, वही नियम पुष्करार्धमें भी है। और पुष्करार्धमें क्षेत्रादिके प्रमाणका नियम धातकी खंडके क्षेत्रादि विभागसे दुगना है। धातकी खंड और पुष्करार्धमें मिलकर चार छोटे मेरुपर्वत है.। वे जंबूद्वीपके मेरुसे पंद्रह हजार योजन कम ऊँचे और छह सौ योजन कम विस्तारवाले हैं। उसका प्रथम कांड' महामेरुके जितनाही है। दूसरा कांड सात हजार योजन कम और तीसरा कांड पाठ हजार योजन कम है। उनमें भद्रशाल वन और नंदन वन मुख्य मेरुके समानही हैं । नंदनवनसे साढ़े पच. पन हजार योजन जानेपर सौमनस नामका वन आता है। वह पाँच सौ योजन बड़ा है। उससे आगे अट्ठाईस हजार योजन जानेपर पांडक वन है। वह मध्यकी चूलिकाके चारों तरफ चार सौ चौरानवे योजन विस्तारवाला है। उसका ऊपर और नीचेका विस्तार और अवगाहन महामेरुके समानही है, इसी तरह
१--ये चार मेरु जमीनसे ८४००० योजन ऊँचे और जमीनपर १४०० योजन विस्तार में हैं। २-भाग।