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५०२ ] त्रिषष्टि शताका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६.
गए। जिसका द्रव्य लुट जाना है वह मनुष्य गतदिन जैसे धनकाही ध्यान क्रिया करता हैएस ही प्रगुरुपी धनके चले जानसे वे उटन-चठन, चलने-फिरन, सात-जागन, और बाहर-अंदर रात-दिन प्रभुका हीध्यान करने लगे। किसी भी कारणले अष्टापद पवतकी तरफले यानवान पुरुयाँको, मानो व प्रभुकं कुट समाचार देन श्राप होगसे, पहले ही की तरह सन्मान करने लगे । (६५-६८५)
इस नरह, महाराजको शोकाष्ठत दन्त मंत्री उनसे कहन लंग, 'हे नहागना ! अापक पिता श्रीलयमदेव प्रमुन पहले गृहवास में रहकर, मी, मायोकलमान अज्ञानी लोगोंको व्यव. हारनीतिमें चलाया, उसके बाद दीक्षा ली और थोड़े ही काल बाद कंवलज्ञानी हुप । बलहान पाकर इस जगत के लोगोंका, भवसमत नहार. करन लिए, उन्हें धर्म लगाया। श्रतम स्वयं जनार्थ हो आँगको ताय कर परमपदको पाए। ऐसे परम प्रनुका श्राप शोर क्यों करन है ।" इसतरह ने सलाह पाप हप चक्रवर्ती धारधार गजकं कामकाज करने लगे।
(६५६-६८६) गहन मुक्त चंद्रमाक्री तरह घार घार शोकमुक्त बने हुए मरन चक्री वाहर विहारममिमें विचरण करने लगे। विध्याचलको याद करनेवान गजेंद्रकी तरह प्रमुक चरणोंका स्मरण कर करक विषाद ऋरनवाल महाराजापाल श्राकर रिश्तेदार उन्हें मृदा प्रसन्न करने लगे। इनसे कई बार परिवारकं श्राग्रह विनोद उत्पन्न करनेवाली ज्यानमुनि जान लगार यहाँ मानो त्रियांना ही राज्य हो पने मुंदर मियाँक समूहके साथ