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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
[ ५.०१
२१ - वप्रादेवीरूप व नानकी पृथ्वी में वष्त्रके समान, विजय राजा के पुत्र और जिनके चरणकमल जगत के लिए पूज्य हैं ऐसे हे नमि प्रभो ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।
२२- समुद्र (विजय) को आनंदित करने में चंद्रमा के समान, शिवा देवीके पुत्र और परम दयालु, मोक्षगामी हे श्ररिष्टनेमि भगवान ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।
२३- अश्वसेन राजा के कुल में चूड़ामणिरूप और वामादेवी - पुत्र हे पार्श्वनाथ ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।
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२४ - सिद्धार्थ राजा के पुत्र, त्रिशला माता के हृदय के श्राश्रासनरूप और सिद्धिप्राप्तिकं अर्थको सिद्ध करनेवाले हे महावीर प्रभो ! मैं आपको वंदना करता हूँ । ( ६५४ - ६७७ )
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इस तरह प्रत्येक तीर्थंकरको स्तुतिपूर्वक नमस्कार करके महाराजा भरत उस सिंहनिपया चैत्यसे बाहर निकले और प्रिय मित्र की तरह उस सुंदर चैत्यको पीछे फिर फिरकर देखते हुए पद पर्वतसे नीचे उतरे। उनका मन उस पर्वत में लगा हुआ था इसलिए, मानो वस्त्रका पल्ला कहीं अटक गया हो ऐसे अयोध्यापति मंदगति से अयोध्या की तरफ चले । शोकके पूरकी तरह सेना से उड़ी हुई रजके द्वारा दिशाओंको प्राकुल करते हुए, शोकार्त चक्रवर्ती प्रयोध्या के पास पहुँचे । मानो चक्रीके सहोदर हों ऐसे, उनके दुःखसे अत्यंत दुःखी बने हुए नगरजनों की सूभरी से सन्मानित महाराज विनीता नगरीमें पहुँचे। फिर भगवानको याद कर-करके वर्षा के बाद शेष बचे हुए मेघकी तरह, अश्रुबिंदु टालते हुए वे अपने राजमहल में