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१] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग २.
समय उसने युग्मधर्मी जन्मे हुए अपने पूर्वजन्म मित्र सागरचंद्रको देवा । (१४०-१४१)
(मित्रके ) दर्शनकपी अमृनकी धारा में जिसका शरीर व्यात होरहा है ऐसे उस हाथीके (मनमें ) बीजमेंसे जैसे अंकुर निकलता है वैसेही स्नेह उत्पन्न हुआ। इससे उसने अपनी गुंडसे, उसे (सागरचंद्रके जीवको) धानंद हो इस तरह, आलिंगन किया और उसकी इच्छा न होने हुए भी उसे उठाकर अपने कंधपर बिठा लिया। एक दूसरेको देखते रहने अभ्याससे उन दोनों मित्रोंको थोड़े समय पहल किए गए कामकी तरह पूर्वजन्म की याद आई। ___ उस समय चार दाँतवाले हाथाके कंधपर बैठे हुए सागरचंद्रको, अचरजसे प्रास्त्रे फैलाकर दूसरे गुगलिए, इंद्रकी तरह देखने लगे। बह, शंख, डोलरकं, फूल और चंद्रके जैसे विमल हाथीपर बैठा हुआ था इसलिए युगलियॉन उसको विमलवाहन के नामसे पुकारना शुरू किया । नातिन्मरण (पूर्वजन्मके) बानसे सब नरहकी नीतियों को जाननेवाला, विमलहाथीकी सवारीबाला और कुदरती सुंदररूपवाला वह सबसे अधिक (सन्माननीय) हया। (१४२-१४७)
कुछ समय बीतनके बाद चारित्रभ्रष्ट अतियोंकी तरह कल्पवृक्षका प्रमात्र कम होने लगा। मद्यांग कल्पवृक्ष थोड़ा और विरम मद्य न लग.मानों वे (पुराने कल्पवृत्त नहीं है। वन उनकी जगह दूसरे कल्पवृक्ष रख दिए हैं। भृतोंग कल्पवृक्ष, दें या न दें, इस तरह सोचते हुए, और परवश हो इस तरह याचना करनेपर मी, देरस पात्र देन लगे। तूयांग कल्पवृक्ष ऐसा