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३१६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र पर्व १. सर्ग ३,
‘विभागके अधिकारीकी तरह, इंद्र वस्त्रालंकार लाया और प्रभुने - उन्हें धारण किया । इंद्रने प्रभुके लिए सुदर्शना नामकी शिविका (पालकी ) तैयार की। वह अनुत्तर विमान नामक देवलोक के विमानसी दिखती थी । प्रमु इंद्रके हाथका सहारा लेकर उम शिविकामें बैठे ऐसा जान पड़ता था मानों वे लोकाग्र रूपी मंदिर (मोक्ष) की पहली सीढ़ी पर चढ़े हैं। पहले रोमांचित हुए मनुष्योंने और फिर देवताओंने, मूर्तिमंत पुण्य-मारके समान उस शिविकाको उठाया। उस समय अानंदसे मंगल बाने वजाग गए। उनकी श्रावानसे, पुस्करावर्तक मेघकी तरह दसों दिशाएँ मर गईं। मानों इस लोक और परलोक दोनोंकी मूर्तिमानं निर्मलताहोगेसे दो चवर, प्रम दोनों तरफ चमकने लगे। वृंदारक नानिके देव,चारणांकी तरह, मनुष्योंके कानोंको प्रसन्न करनेवाले, प्रमुकी लय-जयकारके शब्द ऊँचे स्वरमें करने लगे।
शिविक्रामें बैठकर चलते हुए प्रभु उत्तम देवोंक विमानमें रही हुई शाश्वत प्रतिमाकी तरह शोमने थे। भगवानको जाते देखकर बालक, बूढे-सभी नगर निवासी प्रमुके पीछे इस तरह दौड़ने लगे, जिस तरह बालक अपने पिताके पाछे दौड़त है। कई मेवको देखनवाले मोरॉकी तरह, दरसे स्वामीको देखनेक लिए वृक्षोंकी ऊँची डालियोंपर ला बैट; कई रस्तेके मंदिरों व महलोंकी छनोंपर प्रमुको देखने के लिए ना चढ़े। ऊपरसे पड़ती हुई तेज धूपको उन्होंने चाँदनीके समान माना ! कई घोड़ा जल्दी न पानसे यह सोचकर पैदलही घोड़े की तरह.मार्गपर दौड़ने लगे कि समय व्यर्थ जा रहा है, और कई बलमें मछलीकी तरह लोकसमूहमें घुसकर, स्वामी दर्शनकी इच्छासे आगे