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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत .
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. वह चैत वदी आठमका दिन था। चंद्र उत्तराषाढा नक्षत्र में
आया था। दिनके पिछले पहरका समय था। जय जय शब्दके कोलाहल पूर्वक असंख्य देवता और मनुष्य अपना हर्प प्रकट कर रहे थे। उनके सामने मानों चारों दिशाओंको प्रसाद (वखशिश) देनेकी इच्छासे प्रभुने चार मुट्ठीसे अपने सरके बालोंका लोंच किया। प्रभुके केशोंको सौधर्मपतिने अपने अंचलमें (कपड़े. के पल्लमें) लिया । ऐसा मालूम होता था मानों वह अपने वस्त्रको अलग तरहके धागोंसे बुनना चाहता है। प्रभुने पाँचवीं मुट्ठीसे बचे हुए केशोंका भी लोच करनेकी इच्छा की, तब इंद्रने प्रार्थना की, "हे प्रभु! आप इतने केश रहने दीजिए। कारण, वे जय हवासे उड़कर आपके सोनेके जैसी कांतिवाले कंधेके भाग पर
आते है तब मरकत-मणिके समान शोभते हैं। प्रभुने इंद्रकी बात मानली और बचे हुए केशोंको रहने दिया। कारण
"याञ्चामेकांतभक्तानां स्वामिनः खंडयंति न "
| स्वामी अपने एकनिष्ठ भक्तोंकी याचना को नहीं ठुकराते। सौधर्मपति जाकर उन केशोंको क्षीरसागरमें डाल आया। फिर उसने रंगाचार्य (सूत्रधार) की तरह हाथके इशारेसे वाजोंको बजाना बंद कराया । उस दिन प्रभुके छह तप (दूसरा उपवास) था। उन्होंने देवताओं, असुरों और मनुष्योंके सामने सिद्ध भगवानको नमस्कार करके "मैं सायद्ययोगका प्रत्याख्यान करता हूँ।" (मैं उन सभी कामोंका करना छोड़ता हूँ जिनसे हिंसा होनेकी संभावना है ) कहा और मोक्षमार्गके लिए रथके समान चारित्र प्रहण किया। शरद ऋतुके तापसे तप हुए पुरुष. को जैसे बादलों की दायासे थोड़ी देर के लिए सुग्व होता वैसे