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२३६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ३.
घिरे हुए एक राजाने अपने पुत्र श्रेयांसकी सहायतासे विजय प्राप्त किया है। तीनोंने अपने अपने सपनेका हाल एक दूसरेको सुनाया; मगर, उनके कारणका निर्णय न हुआ, इसलिए वे अपने अपने घर चले गए। मानों उन सपनोंका कारण या फल बताना चाहते हों। वैसे प्रभुने उसी दिन भिक्षाके लिए हस्तिनापुरमें प्रवेश किया। एक बरस तक निराहार रहनेपर भी ऋषमकी चालसे आते हुए प्रभुको शहरके लोगोंने श्रानंदके साथ देखा । (२३८-२५०)
शहरके लोग प्रभुको आते देखकर, तत्कालही दौड़े और विदेशसे आए हुए वंयुकी तरह उनके पास खड़े हो गए । एक बोला, "हे प्रमो ! आप हमारे घर चलनका अनुग्रह कीजिए। कारण, आपन वसंतऋतुकी तरह, चिरकाल के बाद दर्शन दिए है। दूसरेने कहा, "हे स्वामी ! स्नान करने के लायक जल, उबटन, तेल वगैरा और पहननेको) बन्न दैयार हैं, आप स्नान करके वन्न धारण कीजिए।" तीसरा वोला, "हे भगवान ! मेरे यहाँ उत्तम केसर, कस्तूरी, कपूर और चंदन हैं । उनका उपयोग कर मुने कृतार्थ कीजिए। चौथा बोला, "हे जगत-रत्न ! कृपा करके हमारे रत्नालंकारोंचो अपने शरीरपर धारण कर अलंकृत कीजिए।" पाँचवाँ बोला, "हे स्वामी ! मेरे मंदिर (घर) पधारिए और अपने शरीरके अनुकूल रेशमी बलोंको धारण कर उन्हें पवित्र बनाइए।" कोई बोला, "हं देव ! मेरी कन्या देवांगनाके समान है, उसको ग्रहण कीजिए। आपके समागमसे हम धन्य हुए है। कोई बोला, "हं राजकुंजर ! आप क्रीडासे भी पैदल क्यों चलते हैं ? में इस पर्वतके समान हा पर सवार होइए।"